________________
१४०
निरुक्त कोश
७२६ तव (तपस्)
रस-रुधिर-मांस-मेदोऽस्थि-मज्ज-शुक्राण्यनेन तप्यंते कर्माणि चाशुभानीत्यतस्तपः ।
(निचू १ प २६) जिससे शरीरस्थ सारी धातुएं तप्त होती हैं, वह तप है।
जिससे अशुभ कर्म तप्त होते हैं, वह तप है । ७२७. तवण (तपन) तवतीति तवणो।
(अनुद्वा ३२०) जो तपता है, वह तपन सूर्य/अग्नि है । ७२८. तस (त्रस) त्रसंतीति त्रसाः।
(सूचू १ पृ ४७) जो त्रस्त/भयभीत होते हैं, वे त्रस हैं । त्रसन्ति अभिसन्धिपूर्वकं वा ऊर्ध्वमस्तिर्यक् चलन्तीति त्रसाः ।
(जीटी प ६) जो चिंतनपूर्वक गमन करते हैं, वे त्रस हैं । ७२६. तसरेणु (त्रसरेणु) पौरस्त्यादिवायुप्रेरितस्त्रस्यति—गच्छतीति त्रसरेणुः ।
(स्थाटी प ४१६) जो रेणु पवन से प्रेरित हो चलती है, वह त्रसरेणु सूक्ष्ममाप है। ७३०. तहावेय (तथावेद) तथा वेदयंतीति तथावेदाः ।
(सूचू १ पृ १०६) जो स्त्रियां जैसी हैं, वैसी जानते हैं, वे तथावेद/कामतंत्रवित्
७३१. ताइ (त्रातृ) त्रायतीति त्राता।
(सूचू १ पृ. ६४) जो त्राण देता है, वह त्राता है। १. तापयत्यनेकभवोपात्तमष्टविधकर्मेति तपः । (आवहाटी १ पृ ४८) । २. त्रसश्चञ्चलत्वात् भीत इव रेणुः। त्रिंशत्परमाणुपरिमाणम् । स
गवाक्षान्तर्गते सूर्यकिरणे दृश्यते । (शब्द २ पृ ६५४)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org