________________
२७८
निरुक्त कोश १४७२. वेयावच्च (वैयापृत्त्य) व्यापिपति स्मेति व्यापृतः तस्यभावो वैयापृत्यम् । (प्रसाटी प ६८)
धर्मपुष्टि के लिए मुमुक्षुओं की सेवा में व्याप्त होना
वैयापृत्य वैयावृत्त्य है। १४७३. वेर (वैर) विरज्यते येन तद् वैरम् ।
(सूचू १ पृ २२) जिसके द्वारा आत्मा विशेष रूप से रंजित होती है, वह
वैर है। १४७४. वेरि (वैरिन्) वेराई कुव्वती वेरी।
(सू १/८/७) जो वैर करता है, वह वैरी है। १४७५. वेलंधर (वेलन्धर)
वेला-लवणसमुद्रशिखामन्तविशन्ती बहिर्वाऽऽयान्तीमग्र शिखां च धारयन्तीति वेलंधराः।
(स्थाटी प २२१) जो वेला/लवणसमुद्र की शिखा को धारण करते हैं, वे
वेलंधर (पर्वत) हैं। १४७६. वोम (व्योम) विशेषेणावनाद् व्योम ।
(भटी पृ १४३१) जो विशेष रूप से (सर्वत्र) व्याप्त है, वह व्योम/आकाश
जिसमें गति की जाती है, वह व्योम है।
जो (अवकाश प्रदान कर) रक्षा करता है, वह व्योम है । १. वेयावच्चं वावडभावो इह धम्मसाहणनिमित्तं ।
अन्नाइयाण विहिणा संपयाणमेस भावत्थो । (प्रसाटी प ६८) २. अवनं गमनं विविधमस्मिन् विद्यते इति व्योम। अवति-रक्षति प्राणिनोऽवकाशप्रदानेन इति । (शब्द ४ पृ ५५४)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org