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निरुक्त कोश
२८३.
१५००. संजोग (संयोग) संयुज्जत इति संयोगः येन वा संयुज्जते स संयोगः ।
(उचू पृ १५) जो संयुक्त करता है, वह संयोग है। १५०१. संजोग (संयोग) संयुज्यते संयोजनं वा संयोगः ।
(आटी प १०१) जो संयुक्त होता है, वह संयोग/धन-धान्य आदि है । १५०२. संजोयणा (संयोजना) संयोज्यन्ते सम्बध्यन्तेऽसंख्यैर्भवैर्जन्तवो यैस्ते संयोजनाः ।
(पंसंटी प ११२) जिससे जीव असंख्य भवों से संयुक्त/सम्बद्ध होता है, वह
संयोजना/अनन्तानुबंधी कषाय है । १५०३. संठाण (संस्थान) संतिष्ठतेऽनेनाकारविशेषेण वस्त्विति संस्थानम् ।
(उशाटी प ५६२) जिस आकार-विशेष में वस्तु स्थित होती है, वह संस्थान
सन्तिष्ठन्त एभिः स्कन्धादय इति संस्थानानि ।
(उशाटी प ६७७) स्कंध आदि जिसमें रूपायित होते हैं, वे संस्थान हैं। १५०४. संथव (संस्तव) संस्तूयते येन संस्तवः।
(उचू पृ १५१) जिसके द्वारा पहचान प्राप्त की जाती है, वह संस्तव है। १५०५. सांथार (संस्तार)
संस्तरन्ति साधवोऽस्मिन्निति संस्तारः। (व्यभा ४/३ टी प ७)
जिसमें साधु रहते हैं, वह संस्तार/उपाश्रय है ।
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