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निरुक्त कोश
१६४५. सिणेह (स्नेह) स्निह्यतेऽनेनेति स्नेहः ।
(उचू पृ १७१) __जिससे प्रीति की जाती है, वह स्नेह है। १६४६. सित (सित)
सेतति-बध्नाति जीवमिति सितम्। (नंटि पृ १२३)
जो जीव को बांधता है, वह सित/बन्धन है । १६४७. सिद्ध (सिद्ध)
सितं-बद्धमष्टप्रकारं कर्मेन्धनं ध्मातं-दग्धं जाज्वल्यमानशुक्लध्यानानलेन यैस्ते सिद्धाः।
शुक्लध्यान की आग के द्वारा जिन्होंने कर्मरूपी इन्धन को जला दिया है, वे सिद्ध हैं। सेधन्तिस्म'-अपुनरावृत्त्या निर्वृत्तिपुरीमगच्छन् ।
जो सदा सदा के लिए मुक्तिनगर में चले गए हैं, वे सिद्ध
सिध्यन्तिस्म-निष्ठितार्था भवन्तिस्म ।
__ जिनके लिए सब अर्थ कार्य निष्ठित/संपन्न हो गए हैं, वे सिद्ध हैं। सेधन्ते स्म'-शासितारोऽभवन् माङ्गल्यरूपतां वाऽनुभवन्ति स्मेति सिद्धाः।
जो आत्मानुशासक हैं एवं मंगल कल्याण का अनुभव करते हैं, वे सिद्ध हैं। सिद्धाः—नित्या अपर्यवसानस्थितिकत्वात् प्रख्याता वा भव्यरुपलब्धगुणसन्दोहत्वात् ।
(प्रज्ञाटी प २,३) ___ जो शाश्वत/अपर्यवसित हैं, वे सिद्ध हैं। जो भव्य जनों द्वारा
(ज्ञान आदि) गुणों के कारण प्रख्यात/प्रशंसित हैं, वे सिद्ध हैं। १. विधु-गतौ। २. षिध–संराद्धौ। ३. पिधु-शास्त्रे माङ्गल्ये च ।
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