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१६७९. सुप्पभा (सुप्रभा)
सुष्ठु - प्रकर्षेण च भाति - शोभते या सा सुप्रभेति ।
१६८०. सुफणि (दे )
(ओटी पृ २१९ )
जो सुन्दर रूप में सुशोभित होती है, वह सुप्रभा / मुक्ति है ।
सुखं फणिज्जति जत्थ सा भवति सुफणी ।
है ।
१६८१. सुभ (शुभ)
( सूचू १ पृ ११७ )
जिसमें सुखपूर्वक पकाया / रांधा जाता है, वह सुफणी ( पात्र )
शोभते सर्वावस्थास्वनेनात्मेति शुभम् ।
शुभ है ।
( उशाटी प ६४४)
जिसमें आत्मा सब अवस्थाओं में सुशोभित होती है, वह
-१६८२. सुभासिय ( सुभाषित)
सोभणाणि भासिताणि सुभासिताणि ।
-१६८३. सुमुणित ( सुज्ञात) सुट्ठ मुणितं सुमुणितं ।
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निरक्त कोश
जो सुन्दर भाषण / कथन हैं, वे सुभाषित हैं !
* १६८४. सुय ( श्रुत)
(दअचू पृ २११ )
जो अच्छे प्रकार से ज्ञात होता है, वह सुज्ञात है ।
( नं पृ ११ )
सुतीति सुयं । ( वृभा १४७ ) तत्शृणोति तेण वा सुणेति, तम्हा वा सुणेति, तम्हि वा सुतोति सुतं ।
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जो / जिससे / जिसमें या जिसको सुना जाता है, वह श्रुत है । आत्मैव वा श्रुतोपयोगपरिमादनन्यत्वात्शृणोतीति श्रुतम् ।
(नंचू पृ १३ ) श्रुतोपयोग में परिणत आत्मा अनन्य होकर जो सुनती है, वह श्रुत है ।
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