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निरुक्त कोश १५१७. संबाह (सम्बाध) समिति-भृशं बाध्यन्तेऽस्मिन् जना इति संबाधः ।
(उशाटी प ६०५) जहां लोगों की अत्यन्त संकुलता है, वह संबाध/भीड़ है। १५१८. संभम (संभ्रम) संभ्रमति तस्मिन्निति संभ्रमः।
(सूचू १ पृ.६६) जिसमें व्यक्ति संभ्रमित आकुल-व्याकुल होते हैं, वह संभ्रम
१५१६. संभरण (सम्भरण) सम्भ्रियते धार्यते सम्भरणम् ।
(प्रटी प ६३) जो धारण किया जाता है, वह संभरण/परिग्रह है। १५२०. संभव (सम्भव) सदा भवनम् सम्भवः ।
(सूटी २ प ६५) जो सदो पृथ्वी में उत्पन्न होते हैं, वह सम्भव/वनस्पति
विशेष है। १५२१. संभिन्न (संभिन्न)
समस्तं भिन्नं सं एकीभावे वा सत्तामंगीकृत्यैक जीवाजीवादिभावेण भिन्नं संभिन्नं । दव्वपज्जायभावेण भिन्नं संभिन्नं । सम्यग्भिन्नं वा बज्झन्भंतरतो वा भिन्नं संभिन्नं । (आवचू १ पृ १०७)
जो पूर्णरूप से अथवा भिन्न पृथक्-पृथक रूप से ज्ञात किया
जाता है, वह संभिन्न है। १५२२. संभिन्नसोय (सम्भिन्नश्रोत)
सम्भिन्न--सर्वतः सर्वशरीरावयवैः शृण्वन्तीति सम्भिन्नश्रोतारः।
जो संपूर्ण शरीर से सुनते हैं, वे संभिन्नश्रोता विशेष लब्धिसंपन्न हैं। सं भिन्नानि-प्रत्येक ग्राहकत्वेन शब्दादिविषयः व्याप्तानि श्रोतांसि-इन्द्रियाणि येषां ते संभिन्नश्रोतसः।
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