________________
१६२
निरुक्त कोश
८४३. देह (देह) देहियत इति देहो।'
(आचू पृ २६६) जो बढ़ता है/सम्पुष्ट होता है, वह देह है। दिह्यते इति देहः ।
(सूचू १ पृ ५५) दिह्यते-उपचीयन्ते पुद्गलैरिति देहः। (उशाटी प ४१)
___जो पुद्गलों से उपचित होता है, वह देह है। ८४४. दोकिरिय (द्वैक्रिय)
द्वे क्रिये-शीतवेदनोष्णवेदनादिस्वरूपे एकत्र समये जीवोsनुभवतीत्येवं वदन्ति ये ते द्वे क्रियाः। (औटी पृ २०२)
जीव एक समय में एक साथ दो क्रियाओं/शीत-उष्णवेदना आदि का अनुभव करता है-ऐसा प्रतिपादन करने वाले
द्वैक्रियवादी/गंगाचार्यमतावलम्बी हैं । ८४५. दोग्गइ (दुर्गति) दुट्ठा गती दुग्गती।
जो खराब गति है, वह दुर्गति है। दुग्गा वा गती दुग्गती।
जो दुर्ग/भयंकर गति है, वह दुर्गति है। दुक्खं वा जंसि विज्जति गतीए एसा गई दुग्गती।
(निचू १ पृ ११) जो दुःखपूर्ण गति है, वह दुर्गति/नरकगति-तिर्यंचगति है । ८४६. दोणमुह (द्रोणमुख)
दोहिं गम्मति जलेण वि थलेण वि दोणमुहं । (आचू पृ २८२)
___ जिसमें जल और थल-दोनों मार्गों से जाया जा सके, वह द्रोणमुख है।
द्रोण्यो-नावो मुखमस्येति द्रोणमुखम् । (उशाटी प ६०५) १. देग्धि प्रतिदिनं देहः। (शब्द २ पृ ७४६) (दिह-वृद्धौ) २. धातुभिर्दिह्यते देहः । (अचि पृ १२७)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org