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'निरक्त कोश
१६५ १०२८. पव्वज्जा (प्रव्रज्या) पव्वयणं पव्वज्जा पावाओ सुद्धचरणजोगेसु ।
(स्थाटी प १२३) पाप से हटकर शुद्ध चरणयोगों में प्रव्रजन/गमन करना
प्रव्रज्या है। १०२६. पव्वय (पर्वत) पर्वतीति' पर्वतः ।।
(उचू पृ १८५) जो पत्थरों से परिपूर्ण होता है, वह पर्वत है । १०३०. पसत्थु (प्रशास्तृ)
प्रशासति-शिक्षयन्ति ये ते प्रशास्तारः। (स्थाटी ४६३)
जो प्रशासन/शिक्षण देते हैं, वे प्रशास्ता/धर्मोपदेशक हैं । १०३१. पसप्पग (प्रसर्पक) प्रकर्षेण सर्पन्ति-गच्छन्ति भोगाद्यर्थ देशानुदेशम् ।
(स्थाटी प २५५) जो अर्थार्जन के लिए एक देशसे दूसरे देश में निरंतर
प्रसर्पण गमन करते हैं, वे प्रसर्पक हैं । १०३२. पसु (पशु) पश्यते तमिति पशुः।
(उचू पृ १०१) जिसे बांधा जाता है, वह पशु है। पश्यतीति पशुः ।
(उचू पृ १५१) जो समान रूप से देखता है, वह पशु है। १. पय॑ ते पूर्यते शिलाभिः पर्वतः । (पर्व-पूतौं) २. 'पर्वत' का अन्य निरुक्तपर्वाणि सन्त्यत्र वा पर्वतः ।
(अचि पृ २२८) जहां पर्व/भाग होते हैं, वह पर्वत है । ३. सर्वमविशेषेण पश्यति, दृश-कु पशादेशः । (आप्टे पृ ६६६) ४. पशु का अन्य निरुक्त ----- स्पशति बाधते पशुः।
(अचि पृ २७३) जो बाधा पहुंचाता है, वह पशु है ।
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