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निरुक्त कोश
२२३ ११८६. मंगल (मङ्गल)
मंगिज्जएऽधिगम्मइ जेण हिअं तेण मंगलं होइ।
जिसके द्वारा मंगल/हित साधा जाता है, वह मंगल है। अहवा मंगो धम्मो तं लाइ तयं समादत्ते ॥ (विभा २२)
जो मंग/धर्म को प्राप्त कराता है, वह मंगल है। मं गालयइ भवाओ मंगलमिहेवमाइ नेरुत्ता। (विभा २४)
जो मा/पाप को गाल देता है, वह मंगल है । मङ्कयते अनेन मन्यते वाऽनेनेति मङ्गलम् ।
जो मंडित करता है, वह मंगल है।
जिसके द्वारा विघ्न का अभाव निश्चित किया जाता है, वह मंगल है। मा गलो भूदिति मङ्गलम् ।
जो गल/विघ्न को नष्ट कर देता है, वह मंगल है। मा गलो वा भूदिति मङ्गलम् ।
(सूचू १ प २) जो गाल नाश न करे, वह मंगल है। माद्यन्ति हृष्यन्ति अनेनेति मङ्गलम् ।
__ जो प्रसन्न करता है, वह मंगल है । महन्ते पूज्यन्तेऽनेनेति मङ्गलम्। (विभामहेटी १ पृ २)
जिसके द्वारा पूजा जाता है, वह मंगल है। मथ्नाति-विनाशयति शास्त्रपारगमनविघ्नान गमयति-प्रापयति शास्त्रस्थ यं लालयति च श्लेषयति तदेव शिष्यप्रशिष्यपरम्परायामिति मङ्गलम् ।
(उशाटी प २०) जो शास्त्रपारगामिता के विघ्नों का विनाश करता है, सूत्रार्थ को स्थिर करता है और उसे शिष्य-प्रशिष्य की
परंपरा से जोड़ता है, वह मंगल है। ११८७. मंथु (मन्थु) मथ्यत इति मंथू ।
(उचू पृ १७५) जो मथित/चूर्णित किया जाता है, वह मंथु सत्तु आदि का चूर्ण है।
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