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'निरुक्त कोश
२०१ २०६१. पावपरिक्खेवि (पापपरिक्षेपिन्)
पापैः कथञ्चित् समित्यादिषु स्खलितलक्षणैः परिक्षिपतितिरस्कुरुत इत्येवंशीलः पापपरिक्षेपी। (उशाटी प ३४६)
जो पाप/स्खलना करने वालों का परिक्षेप/तिरस्कार करता है, वह पापपरिक्षेपी (अविनीतशिष्य) है । १०६२. पावयण (प्रावचन) प्रवचनं वेत्ति प्रावचनः।
(आच पृ ३७३) जो प्रवचन/श्रुत को जानता है, वह प्रावचन/बहुश्रुत है। १०६३. पावासि (प्रवासिन्) प्रवसतीत्येवंशीलः प्रवासी।
(व्यभा ७ टी प ६६) जो प्रवास करता है, वह प्रवासी है। १०६४. पास (पाश) पाश्यतेऽनेनेति पाशः।
(उचू पृ १५०) जो बांधता है, वह पाश है। पारवश्य हेतुतया पाशाः । (उशाटी प ५०५)
जो परवशता/परतंत्रता का हेतु है, वह पाश/बंधन है। १०६५. पासंडत्थ (पाषण्डस्थ)
पाषण्डं -- व्रतं तत्र तिष्ठन्तीति पाषण्डस्थाः। (अनुद्वाहाटी प २३)
जो पाषंड/व्रत में उपस्थित हैं, वे पाषण्डस्थ हैं। १०६६. पासंडि (पाषण्डिन्)
अट्ठविधकम्मपासातो डीणो पासंडी। (दअचू पृ २३४) पाशाड्डीनः पाषण्डी।
(दटी प २६२) जो अष्टविध कर्मपाश से दूर है, वह पाषण्डी/मुनि है । १. (क) पश्यते बध्यतेऽनेन पाशः । (ख) 'पाश' का अन्य निरुक्त
पान्त्यऽनेन वा पाशः। (अचि पृ २०५) जिससे रक्षा की जाती है, वह पाश है।
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