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निरुक्त कोश
५५४. चित्ताणुग (चित्तानुग) चित्तं अणुगच्छंतीति चित्ताणुगा। (उचू पृ ३०)
जो चित्त के अनुकूल प्रवृत्ति करते हैं, वे चित्तानुग हैं । ५५५. चिरद्वितीय (चिरस्थितिक) चिरं तेसु चिट्ठतीति चिरद्वितीय। (सूचू १ पृ १२८)
जहां चिर लंबे समय तक रहना होता है, वह चिरस्थितिक (नरक) है। ५५६. चीर (चीर) चित्तंति तदिति चीरं'।'
(उचू पृ १३८) जो ढांकता है, वह चीर/वल्कल है । ५५७. चेइय (चैत्य)
चीयत इति चेइयं । चित्तंति वा । ततः चेतनाभावो वा जायते चेतियं ।
(उचू पृ १८१) जो चिति/वेदिका से युक्त होता है, वह चैत्य चैत्यवृक्ष है।
जो चेतन प्राणियों (पशु-पक्षियों) से आकीर्ण होता है, वह
चैत्य/चैत्यवृक्ष है। ५५८. चेइयथूभ (चैत्यस्तूप)
चैत्यस्य सिद्धायतनस्य प्रत्यासन्नाः स्तूपाः चैत्यस्तूपाः । चित्तालादकत्वात् वा चैत्याः स्तूपाः चैत्यस्तूपाः ।
(स्थाटी प २२५) चैत्य सिद्धायतन के निकटवर्ती स्तूप चैत्यस्तूप कहलाते हैं ।
जो चित्त में आह्लाद पैदा करते हैं, वे चैत्यस्तूप हैं । १. चिनोति आवृणोति वृक्षं कटि देशादिकं वा चीरम् ।
(शब्द २ पृ ४५४)
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