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निरुक्त कोश
स्निह्यते—श्लिष्यतेऽष्टप्रकारेण कर्मणेति स्निहः ।(आटी प १६०)
आठ प्रकार के कर्मों से जो श्लिष्ट होता है, वह स्निह/ स्नेहवान् है। ७०१. णिह (निह) निहन्यत इति निहः ।
(सूटी २ प १५२) जिसका निहनन/पीड़न होता है, वह निह/पीड़ित है । ७०२. णिहि (निधि) नितरां धीयते - स्थाप्यते यस्मिन् स निधिः । (स्थाटी प ३२७)
जिसमें सदा कुछ न कुछ रखा जाता है, वह निधि है। ७०३. णीरय (नीरजस्) निर्गतो रजसः कर्मण इति नीरजाः। (उशाटी प ३१९)
जो कर्म-रजों से रहित है, वह नीरज है । ७०४. णीसंस (नि:शंस) निष्क्रान्तो वा शंसायाः—श्लाघाया इति निःशंसः। (प्रटी प ५)
जो आशंसा/श्लाघा से रहित है, वह निःशंस है। ७०५. णीसासग (नि:श्वासक) निःश्वसितीति निःश्वासकः। (आवहाटी १ पृ २२३)
जो नि:श्वास लेता है, वह नि:श्वासक है । ७०६. णेआइय (नैयायिक) न्यायेन चरतीति नैयायिकः।। (आवचू १ पृ ६०२)
जो न्यायपूर्वक चलता है, वह नैयायिक है। ७०७. णेउ (नेतृ) नयतीति नेता।
(सूचू १ पृ १४४) जो ले जाता है, वह नेता है ।
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