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६०६. जोगवाहि ( योगवाहिन)
श्रुतोपधान कारितया योगेन वा समाधिना सर्वत्रानुत्सुकत्वलक्षणेन वहतीत्येवंशीलो योगवाही ।
( स्थाटी प ४९१ )
जो योग / तपोयोग और समाधियोग से जीवनयापन करता है, वह योगवाही है ।
६०७. जोणि (योनि)
जणीति जोणिः ।
जो पैदा करती है, वह योनि है ।
यौति - मिश्रीभवति असुमान् यासु ता योनयः । जिनमें जीव सम्मिश्रित होता है, वे योनियां हैं । युवन्ति - तेजसकार्मणशरीरवन्तः
सन्त
स्थल हैं ।
औदारिकादिशरीरेण
मिश्रीभवन्त्यास्यामिति योनिः ।
( नंटी पृ ३ )
जिसमें विविध शरीरों का मिश्रण होता है, वह योनि है । आसु जन्तवो जुषन्ते सेवन्ते ता इति वा योनयः ।
( उशाटी प १८३ )
a जिनमें बार-बार आते हैं, रहते हैं, वे योनियां / उत्पत्ति
६०८. भरग ( स्मारक / ध्याता )
निरुक्त कोश
सुत्थेय मणसा झायंतोज्भरको । '
( उच्च पृ १६५ )
( नंचू पृ८ ) जो सूत्र और अर्थ का मन से चिंतन करता है, वह स्मारक ( स्मरण करने वाला ) है ।
६०६. काण ( ध्यान )
ध्यायते -- चिन्त्यते वस्त्वनेनेति ध्यातिर्वा ध्यानम् । ( प्रसादी प ६८ ) जिसके द्वारा वस्तु का चिंतन किया जाता है, वह ध्यान है । ६१०. सिर ( शुषिर )
भुषे: - शोषस्य दानात् शुषिरम् ।
१. स्मरेर्भरभूर
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जो शोष - पोलापन है, वह शुषिर / आकाश है ।
1 (प्रा ४ /७४)
(भटी पृ १४३१).
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