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निरुक्त कोश
जिसमें खर / तीक्ष्ण कांटे होते हैं, वह खरकण्टक / बबूल है । खरकण्टयति — लेपवन्तं करोति यत् तत्खरण्टम् । ( स्थाटी प ३३६ ) जो खरष्टित / लिप्त करता है, वह खरण्ट / अशुचि है |
४५८. खवण ( क्षपण )
क्षपयति कर्माणीति क्षपणः ।
४५. खह (खह )
जो कर्मों का क्षय करता है, वह क्षपण / मुनि है ।
खनने भुवो हाने च - त्यागे यद् भवति तत् खहमिति ।
है ।
४६०. खयर ( खचर )
(भटी पृ १४३१)
भूमि को खोदने से जो प्रकट होता है, वह खह / आकाश
खम्-- आकाशं तस्मिश्चरन्तीति खचराः ।
४६१. खाइम ( खादिम)
खे माइ खाइमंति ।
(पिटीप ५)
जो ख/ आकाश में चलते हैं, वे खचर / पक्षी हैं ।
खाज्जत इति खातिमं ।
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जो खाया जाता है, वह खादिम है ।
४६२. खीरासव (क्षीरास्रव )
जो खे/ मुखाकाश में समाता है, वह खादिम है ।
( उशाटी प ६६८ )
( आवनि १५८८ )
(आवचू २ पृ ३१३)
क्षीरवन्मधुरत्वेन श्रोत्ॠणां कर्णमनः सुखकरवचनमाश्रवन्ति-क्षरन्ति ये ते क्षीरास्रवाः ।
( औटी पृ ५३)
जिनके वचन क्षीर की तरह भरते हैं, वे क्षीरास्रव (लब्धिसम्पन्न ) हैं ।
१. खमित्याकाशं तच्च मुखाकाशं तस्मिन् मायत इति खातिमं ।
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( आवचू २ पृ १३)
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