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निरुक्त कोश
जिसके द्वारा बहुत से दोषों को नष्ट कर दिया जाता है, वह
कोटि/भिक्षा-शुद्धि है। ४४६. कोमुदी (कौमुदी) कुमुदेहि' प्रहसणभूतेहिं क्रीडणं जीए सा कोमुदी।
__ (दअचू पृ २१०) जो विकसित कुमुदों/कमल पुष्षों के साथ क्रीडा करती है, वह कौमुदी/चांदनी है। ४४७. कोव (कोप) कुप्यते येन स कोपः।
(उचू पृ २८) जिसके द्वारा व्यक्ति कुपित होता है, वह कोप है। ४४८. कोह (क्रोध) क्रुध्यति येन स क्रोधः।
(ओनिटी प ५) जिससे प्राणी क्रुद्ध होता है, वह क्रोध है । ४४६. कोहदंसि (क्रोधशिन्) कोहं पस्सति कोहदंसी।
(आचू पृ १२८) जो क्रोध को देखता है, वह क्रोधदर्शी है । ४५०. खंडिय (खण्डिक) खंडयन्तीति खण्डिका।
(उचू पृ २०६) जो शीघ्र खण्डित कुपित होते हैं, वे खण्डिक/विद्यार्थी हैं । ४५१. खंत (क्षान्त) खमतीति खंतः।
(सूचू २ पृ ३३५) १. कौ मोदते कुमुदम् । (अचि पृ २६१) ___ जो कु/पृथ्वी पर मुदित/विकसित होता है, वह कुमुद/श्वेत कमल है। २. कौमुदी का अन्य निरुक्तकुमुदानामियं विकाशहेतुत्वात् कौमुदी । (अचि पृ २४) जो कुमुदों को विकसित करती है, वह कौमुदी है ।
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