________________
२
निरुक्त कोश
४७७. गंड (गण्ड) गच्छतीति गण्डम् ।
(उचू पृ १६१) जो आगे से आगे फैलता है, वह गण्ड/फोड़ा है। ४७८. गंडि (गण्डि)
गच्छति प्रेरितः प्रतिपथादिना डीयते च कूर्दमानो विहायोगमनेनेति गण्डिः ।
(उशाटी प ४६) जो हांकने पर उल्टे मार्ग से जाता है और उछलता कूदता है, वह गंडि/दुष्ट बैल है। ४७९. गंडिपय (गण्डीपद) गण्डी पद्मकणिका तद्वद्वत्ततया पदानि येषां ते गण्डीपादाः ।
(उशाटी प ६६६) गण्डी/पद्मकणिका की तरह जिनके पांव वृत्ताकार हैं, वे
गंडीपद हैं। ४८०. गंथ (ग्रन्थ)
ग्रथनाति–बध्नात्यात्मानं कर्मणेति ग्रन्थः । (प्रसाटी प २१०)
जो आत्मा को कर्म से बांधता है, वह ग्रंथ/परिग्रह है। ४८१. गंथ (ग्रन्थ) विप्रकीर्णार्थग्रन्थनाद् ग्रन्थः।
(अनुद्वामटी प ३४) जो बिखरे हुए अर्थों को ग्रथित करता है, वह ग्रंथ है । ४८२. गंथमेधावि (ग्रन्थमेधाविन्)
महंतं गंथं अहिज्जति सो गंथमेधावी। (दजिचू पृ २०३)
जो महान् ग्रंथ का अध्ययन करता है, वह ग्रंथमेधावी है । ४८३. गंध (गन्ध) घ्रायते-सिध्यते इति गन्धः।
(स्थाटी प २३) १. गच्छति विकारं गण्डम् । (अचि पृ १०७)
जो विकृत होता जाता है, वह गण्ड/फोड़ा है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org