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निरुक्त कोश
३२३. उवग्गह (उपग्रह) . उपगृह्णातीति उपग्रहः ।
(दश्रूचू प १७) जो उपकार करता है, वह उपग्रह/उपकरण है। ३२४. उवधायणाम (उपघातनाम)
उपहन्यते येन कर्मणा तदुपघातनाम। (प्राक १ टी पृ ३३)
जो उपहनन/घात करता है, वह उपघात (नामकर्म) है। ३२५. उवचय (उपचय)
उव्विच्चा चिज्जति जेण सो उवचयो। (आचू पृ २६९)
जो बाहर से ग्रहण कर उपचित होता है, वह उपचय है। ३२६. उवचरग (उपचरक) उपेत्य चरतीत्युपचरकः ।
(सूचू २ पृ ३५७) जो समीप आकर (विनय आदि का उपचार कर) ठगता है, वह उपचरक है। ३२७. उवज्झाय (उपाध्याय)
उत्ति उवओगकरणे वत्ति अ पावपरिवज्जणे होइ ।। झत्ति अ झाणस्स कए उत्ति अ ओसक्कणा कम्मे ।।
(आवनि ६६९) जो उपयोगपूर्वक पापकर्म का परिवर्जन करते हुए ध्याना: रूढ़ हो कर्म-मल को दूर करते हैं, वे उपाध्याय हैं । तमुपेत्य शिष्टा अधीयन्त' इत्युपाध्यायः। (आवचू १ पृ ५८६)
जिसके पास जाकर शिष्य पढ़ते हैं, वह उपाध्याय है ।
१. उप-आत्मनः समीपे संयमोपष्टम्भार्थं वस्तुनो ग्रहणमुपग्रहः। -----
(प्रसाटी प ११८) २. ईङ्-अध्ययने ।
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