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निरुक्त कोश
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३९३. कल्लाण (कल्याण) कल्यमानयतीति कल्याणम् ।।
(उचू पृ ४१) कल्यः-अत्यन्तनीरुक्तया मोक्षस्तमानयति अणति-प्रज्ञापयतीति कल्याणः।
(उशाटी प १२८) जो कल्य/मुक्ति/सुख/आरोग्य प्रदान करता है, वह कल्याण है। ३६४. कल्लाण (कल्याण)
कल्लमणइ ति गच्छइ गमयइ व बुज्झइ व बोहयइ व त्ति । भणइ भणावेइ व जं तो कल्लाणो स चायरिओ॥
(विभा ३४४१) ___ जो स्वयं कल्य आरोग्य मोक्ष को प्राप्त करते हैं, मोक्ष-मार्ग को जानते हैं, उसका प्रतिपादन करते हैं तथा दूसरों को कल्य प्राप्त कराते हैं, ज्ञात कराते हैं और उसका प्रतिपादन करने के लिए प्रेरित करते हैं, वे कल्याण/गुरु/आचार्य हैं। अहवा कल सइत्थो संखाणत्यो य तस्स कल्लं ति । सदं संखाणं वा जमणइ तेणं च कल्लाणो। (विभा ३४४२)
__ जो कल्य/शब्द-शास्त्र/व्याकरण तथा कल्य/गणित-शास्त्र के
ज्ञाता हैं, वे कल्याण आचार्य हैं। ३९५. कवित्थ (कपित्थ) कपिरिव लम्बते त्थेति च करोति कपित्थं । (अनुद्वा ३६८)
जो कपि बंदर की तरह लटकता हुआ रहता है, वह कपित्थ कैथ है। १. कल्यते धार्यते कल्याणम ।
कल्यं-नीरुजत्वमणतीति वा (कल्याणम्) । (अचि पृ १५) २. 'कपित्थ' के अन्य निरुक्त ।
कपयोऽस्मिन् तिष्ठन्ति कपित्थः, कपिप्रियत्वात् कपिरिव तिष्ठतीति वा । (अचि पृ २५८)
जहां कपि रहते हैं, वह कपित्थ (वृक्ष) है। जो कपि को प्रिय है, वह कपित्थ (वृक्ष) है। (जिसके फल) कपि की तरह स्थित हैं, वह कपित्थ है ।
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