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राव रणमल्लजी की मृत्यु के कारण पर विचार
राव रणमल्लजी की मृत्यु के कारण पर विचार ।
मेवाड़ के कुछ इतिहास-लेखक महाराणा कुम्भाजी की गलती को छिपाने के लिये राव रणमल्लजी पर कुम्भाजी को मार कर मेवाड़-राज्य पर अधिकार कर लेने के इरादे का दोष लगाते हैं, और इसीके आधार पर उनके मारे जाने को न्याय्य सिद्ध करते हैं । परन्तु यह कहां तक ठीक है, इसका निर्णय नीचे लिखे दो पहलुओं पर विचार करने से हो सकता है:
१. महाराणा लाखाजी की मृत्यु के समय मोकलजी की अवस्था किसी भी हालत में ग्यारह-बारह वर्ष से अधिक न थी और रावत चंडा के शीघ्र ही नाराज होकर मांडू चले जाने पर मेवाड़-राज्य का सारा प्रबन्ध कई वर्षों तक रणमल्लजी के ही हाथों में रहा था । इसके बाद महाराणा मोकलजी के मारे जाने के समय उनके पुत्र कुम्भाजी केवल छै-सात वर्ष के थे और मेवाड़ में अराजकता भी फैल गई थी। परन्तु रणमल्लजी के कठिन परिश्रम से चाचा और मेरा मारे गए और कुम्भाजी को वहां की गद्दी मिली । इसके बाद भी रणमल्ल जी ने लगातार पांच वर्षोंतक मेवाड़ राज्य का जैसा कुछ प्रबन्ध किया, उसका हाल राणपुर ( गोडवाड़ ) से मिले, वि० सं० १४१६ ( ई० सन् १४३१ ) के, महाराणा कुम्भाजी के समय के लेख से प्रकट हो जाता है । यदि सचमुच में ही रणमल्लजी का मेवाड़ राज्य पर अधिकार कर लेने का विचार होता, तो वे मोकलजी के समय अथवा उनके मारे जाने से उत्पन्न हुई विकट परिस्थिति के समय, अपनी इच्छा पूर्ण कर सकते थे । कुम्भाजी के युवा होने तक ठहरे रहना तो इस कार्य के लिये उलटा हानिकारक था ।
२. इतिहास से सिद्ध है कि जिस समय महाराणा लाखाजी का विवाह हंसाबाई के साथ हुआ था, उस समय वह वृद्ध हो चुके थे । ऐसी हालत में सम्भव है कि विमाता के गर्भ से उत्पन्न होनेवाले भाई के लिये अपना राज्याधिकार छोड़ने की प्रतिज्ञा करते समय ( लाखाजी के ज्येष्ठ पुत्र ) चंडा के चित्त में मोकल के उत्पन्न होने की सम्भावना ही न रही हो । फिर यह भी सम्भव है कि उसके उत्पन्न हो जाने से, पूर्व प्रतिज्ञानुसार, राज्याधिकार छोड़ देने को बाध्य होने पर भी उसके चित्त में उसे फिर से प्राप्त कर लेने की इच्छा उत्पन्न हो गई हो । इसके बाद जब मोकलजी के मारने का
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