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मारवाड़ का इतिहास भागकर आगरे पहुँचा और वहाँ से दिल्ली की तरफ़ चला गया । औरङ्गजेब ने आगरे पहुँच अपने पुत्र सुलतान मुहम्मद द्वारा वहाँ के किले पर अधिकार कर लिया और स्वयं बादशाह शाहजहाँ को कैद कर, दारा के पीछे चला । मार्ग में, मथुरा पहुँच उसने मराद को भी धोखे से शराब पिलाकर कैद कर लिया । इसके बाद वह दिल्ली से भागकर लाहौर की तरफ़ जाते हुए दारा के पीछे चला और मार्ग में आअजाबाद में उसने अपने तख़्त पर बैठने की रस्म पूरी की।
इसके बाद उसने वि० सं० १७१५ की भादों वदि ११ ( ई० स० १६५८ की १४ अगस्त ) को, आंबेर-नरेश जयसिंहजी द्वारा महाराज जसवन्तसिंहजी को समझाबुझाकर अपने पास बुलवाया । यह भी समय की गति देख उससे मिलने को पंजाब पहुँचे । इस पर आलमगीर ने खासा खिलअत, जरी की सिली हुई झूल और चाँदी के साज़ का एक हाथी और एक हथिनी तथा एक बढ़िया जड़ाऊ तलवार देकर इनका सत्कार किया । इसी के कुछ दिन बाद सतलज के तट पर पहुँचने पर उस (आलमगीर ) ने महाराज को खासा खिलअत, जड़ाऊ जमधर, मोतियों का एक गुच्छा और एक परगना, जिसकी आमदनी एक करोड़ दाम (करीब २३ लाख रुपये ) की थी, देकर दिल्ली को रवाना किया, और साथ ही अपने लौटने तक इनसे वहाँ की देखभाल करते रहने का आग्रह किया । इसी के अनुसार यह दिल्ली चले आएं।
आलमगीरनामे में लिखा है कि इस युद्ध में महाराज जसवंतसिंह के चचेरे भाई राठोड़ रूपसिंह ने भी बड़ी वीरता दिखाई थी । वह वीर आगे बढ़ आलमगीर के हाथी के पास जा पहुँचा, और वहाँ पर घोड़े से उतर ऐसी वीरता से लड़ा कि स्वयं औरंगज़ेब उसकी बहादुरी को देख दंग हो गया। उसकी इस वीरता को देख उसने उसे जीवित पकड़ने की आज्ञा दी थी । परन्तु उसके भीषण कार्यों को देखकर अंत में विपक्ष के सैनिकों से न रहा गया और उन्होंने उसे मार डाला ( देखो पृ० १०२-१०३)। १. उस दिन वि० सं० १७१५ की सावन सुदि १ (ई० सन् १६५८ की २१ जुलाई ) थी।
मासिरे आलमगीरी, पृ० ८। २. ख्यातों में लिखा है कि जिस समय औरंगजेब ने महाराज को सेना-सहित बुलवाया था,
उस समय ५,००,००० रुपये तो सांभर के शाही खज़ाने से उनके पास भिजवाए थे और ५०,००० की हुडियाँ भेजी थीं। इस पर महाराज मथुरा में पहुँच उससे मिले ।
परन्तु फ़ारसी तवारीखों में इसका उल्लेख नहीं है। ३. आलमगीरनामा, पृ० १८३ । ४. आलमगीरनामा, पृ० १८६ । ५. ख्यातों में इनका वि० सं० १७१५ की आसोज सुदि १ को दिल्ली पहुंचना लिखा है।
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