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महाराजा गजितसिंहजी ले लिया। बहुत से यवन मारे गए या इधर उधर भाग गए । परन्तु जो बच रहे, उन्होंने दाढ़ी मुंडवाकर अपने वेश को ही बदल लिया । इन कार्यों से निपटकर महाराज ने अपने पक्षवालों को उनकी सेवाओं के अनुसर जागीरें आदि देकर संतुष्ट किया, और विपक्षियों को यथासाध्य दन्ड देने का प्रबन्ध किया ।
जब इन बातों की सूचना औरङ्गजेब के उत्तराधिकारी ( मुहम्मद मुअज्जम ) बादशाह बहादुरशाह को मिली, तब वि० सं० १७६४ की कार्तिक सुदी - ( ई० सन् १७०७ की २३ अक्टोबर ) को वह महाराज से बदला लेने के लिये अजमेर की तरफ रवाना हुआ। इस यात्रा में ऑबेर-महाराज सवाई जयसिंहजी भी उसके साथ थे ।
उसके आगमन का समाचार पाते ही महाराज किले का साज-सामान ठीककर युद्ध की तैयारी करने लगे, और उनके अनेक सरदार भी प्राणों की बलि देकर किले की रक्षा करने को आ उपस्थित हुए।
२. यह वि० सं० १७६४ की आषाढ़ बदी ४ (ई० सन् १७०७ की ८ जून) को अपने
भाई शाह ज़ादे आज़म को मारकर बादशाह बना था । 'मासिरुलउमरा' में लिखा है कि मुहम्मद मुअज्जम ने अपने भाई आज़मशाह पर चढ़ाई करने के समय महाराज को अपनी सहायता के लिये बुलवाया था । परन्तु इन्होंने उसकी प्रार्थना पर ध्यान नहीं दिया । इसी से आज़म को परास्त करने के बाद उसने इन पर चढ़ाई करने का प्रबंध किया, और खाँजमाँ को सेना देकर आगे भेजा । इसके बाद संधि हो जाने पर महाराज
को ३,००० सवारों का मनसब दिया गया । (देखो पृ० ७५६)।
औरंगजेब के तीसरे पुत्र मोहम्मद आज़म का, हि० सन् १११८ की ६ सफ़र (वि० सं० १७६३ की प्रथम ज्येष्ठ सुदि ई० सन् १७०६ की ६ मई ) का, महाराज के नाम का एक फरमान मिला है। उसमें इनको महाराजा का खिताब, सात हज़ारी ज़ात और सात हज़ार सवारों का मनसब देने का उल्लेख है । परन्तु उस समय बादशाह औरंगजेब जीवित था । इससे ज्ञात होता है कि मोहम्मद आज़म ने पिता से बगावत कर बादशाह बनने का इरादा किया होगा और उस समय राठोड़ नरेश को अपनी तरफ मिलाने के लिये इनके नाम यह फ़रमान भेजा होगा।
प्राज़म के बगावत करने की पुष्टि ऐलफिन्स्टन की 'हिस्ट्री ऑफ़ इण्डिया' और 'मुन्त खिबुल्लु बाब' से भी होती है। (देखो क्रमशः पृ० ६५१ और भा० २, पृ. ५४६ )।
२. मुंतखिबुल्लुबाब, भा॰ २, पृ० ६०५-६०६ । ३. जयसिंहजी ने शाहज़ादे आज़म का पक्ष लिया था। इसी से बहादुरशाह ने जयपुर पर
अपने अनुयायी विजयसिंह का अधिकार करवा दिया था। यह विजयसिंह जयसिंहजी का छोटा भाई था।
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