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महाराजा रामसिंहजी इसी के आगे 'सहरुल मुताख़रीन' का लेखक लिखता है-" यद्यपि यह घटना अपूर्व है, तथापि मैंने इसे अपने मौसेरे भाई इस्माइलअलीखां की जबानी, जो उस समय जुल्फिकारजंग के साथ था, सुनकर ही लिखा है । इसलिये यह बिलकुल सही है । राजपूतों का यह गुण और उच्च-स्वभाव प्रशंसनीय है। ईश्वर उनको और भी सद्गुण दे' । इसके बाद यद्यपि बखतसिंह ने जुल्फिकारजंग को हर तरह से समझाकर हिम्मत बँधानी चाही, तथापि वह घबराकर अजमेर की तरफ़ होता हुआ लौट गया। इस युद्ध में मल्हारराव होल्कर का पुत्र और जयपुर-नरेश ईश्वरीसिंह रामसिंह की तरफ़ थे, फिर भी बखतसिंह ने रसद आदि के संग्रह करने में चतुरता से और युद्ध में वीरता से काम लिया था । परन्तु जुल्फिकारजंग के इस प्रकार हतोत्साह होकर लौट जाने से उसे भी युद्ध से मुँह मोड़ना पड़ा ।" ___वि० सं० १८०७ की कार्तिक सुदी ६ ( ई० सन् १७५० की २८ अक्टोबर ) को बखतसिंहजी ने मेड़ते पर चढाई की। परन्तु इसमें भी उन्हें सफलता नहीं
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(सहरुल मुताख़रीन, भा० ३, पृष्ठ ८८५)। २. संभव है, यह खाँडेराव हो, जो वि० सं० १८११ (ई० सन् १७५४ ) में जाट-नरेश
सूरजमल से लड़ता हुआ डीग में मारा गया था। ३. इस अवसर पर महाराजा रामसिंहजी की तरफ से रीयाँ के ठाकुर शेरसिंह और राजाधिराज
बखतसिंहजी की तरफ के पाउवे के ठाकुर कुशलसिंह के बीच बड़ी वीरता से युद्ध हुआ। अन्त में दोनों ही योद्धा आपस में लड़कर वीरगति को पहुंचे। यह युद्ध वि० सं० १८०७ की अगहन सुदी ६ (ई. सन् १७५० की २६ नवम्बर ) को हुआ था।
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