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मारवाड़ का इतिहास यह देख मरहटों ने जोधपुर पर कब्जा कर लेने का विचार किया । इस पर देश-काल को अपने विपरीत देख महाराज ने मरहटों से संधि करली । इससे अजमेर प्रान्त और साठ लाख रुपये माधवराव (माधोजी) के हाथ लगे । साथ ही जो कर अब तक दिल्ली के बादशाह को दिया जाता था, वह भी मरहटों को देना तय हुआ । यह घटना वि० सं० १८४७ के फागुन (ई० स० १७९१ की फरवरी ) की है।
महाराजा विजयसिंहजी ने एक जाट जाति की स्त्री को अपनी 'पासवान' बना रक्खा था । उसका नाम गुलाबराय था । महाराज की अत्यधिक कृपा के कारण राज्य | में भी उसका बहुत प्रभाव था और कभी-कभी वह राज्य के कामों में भी दखल
दे दिया करती थी। इससे मारवाड़ के बड़े-बड़े सरदार अप्रसन्न हो गए और अपना विरोध प्रकट करने को जोधपुर छोड़ कर मालकोसनी की तरफ़ चले गएँ । यह देख वि० सं० १८४८ के फागुन (ई० स० १७९२ की फरवरी) में महाराज स्वयं उनको लौटा
राज श्री बीकानेर में के महाराजा सूरतसिंहजी के इतिहास में भी इस युद्ध का उल्लेख
नहीं है ( देखो पृ० १६७)। १. महाराज ने इतने रुपये एक साथ न दे सकने के कारण कुछ तो गहने और जवाहरात आदि
के रूप में मरहटों को उसी समय दे दिए, और बाकी रुपयों की एवज़ में जमानत के
तौर पर साँभर, मारोठ, नांवा, परबतसर, मेड़ता और सोजत की आमदनी उन्हें सौंप दी। २. राजपूताने में 'पासवान' राजा की उस उप-पत्नी को कहते हैं, जिसका दरजा महारानी से
कुछ ही कम होता है। पासवान गुलाबराय वैष्णव संप्रदाय को मानने वाली थी। इसके पुत्र का नाम तेजसिंह था, जिसकी मृत्यु वि० सं० १८४२ में हुई थी।
३. एक बार गुलाबराय किसी बात पर महाराज के प्रधान मंत्री और कृपापात्र खीची गोरधन (गोवर्धन)
से नाराज़ हो गई । यह देख वह पौकरन ठाकुर सवाईसिंह के डेरे पर चला गया और सब सरदारों को एकत्रित कर पासवान के राज्य कार्य में हस्ताक्षेप करने की शिकायत करने लगा । इस पर सब सरदारों ने मिलकर महाराज को समझाने का इरादा किया । परंतु इस गुप्त-मंत्रणा की सूचना गुलाबराय के कानों तक पहुँच जाने से वे सब घबरा कर बीसलपुर
की तरफ चले गए। किसी किसी ख्यात में यह भी लिखा मिलता है कि वि० सं० १८४७ (ई. स. १७६०) के करीब गुलाबराय ने, महाराज के ज्येष्ठ-पौत्र भीमसिंहजी के होते हुए मी, महाराज के छोटे पुत्र शेरसिंह को युवराज-पद दिलवा दिया था। इस से नाराज़ होकर चांपावत, कुंपावत, अदावत और मेड़तिये सरदार मालकोसनी की तरफ चले गए थे।
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