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मारवाड़ का इतिहास
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सिवाने की तरफ़ रवाना होगए । उस समय प्रतिज्ञा करने वाले सरदार भी उन्हें सिवाने तक सकुशल पहुँचा देने के लिये उनके साथ हो लिए । मार्ग में सायंकाल हो जाने से इनका पहला पड़ाव भँवर नामक गांव में हुआ । इसी दिन वि० सं० १८५० की चैत्र सुदि ८ ( ई० स० १७६३ की २० मार्च) को महाराज किले में दाख़िल हुए । यद्यपि सरदारों ने महाराज की अनुमति लेकर ही भीमसिंहजी को मार्ग में किसी प्रकार की छेड़छाड़ न होने देने का वचन दिया था, तथापि किले पर पहुँचते ही महाराज का क्रोध भड़क उठा और इन्होंने राज्य की विदेशी सेना को महाराज- कुमार भीमसिंहजी को मार्ग में से पकड़ लाने की आज्ञा देदी । इसी के अनुसार उस सेनाने दूसरे दिन प्रातःकाल होते-होते भँवर पहुँच भीमसिंहजी के दल पर आक्रमण कर दिया । यह देख राजकुमार को सकुशल सिवाने तक पहुँचाने के लिये साथ गए राजभक्त सरदारों को भी, अपनी प्रतिज्ञा पूरी करने के लिये, महाराज की सेना से युद्ध करना पड़ा । महाराज की भेजी हुई सेना की संख्या अधिक होने से इधर कुछ सरदार तो उसका मार्ग रोक कर युद्ध में प्रवृत्त हुए और उधर उनकी सलाह से ठाकुर सवाईसिंह भीमसिंहजी को लेकर पौकरन की तरफ चल दिया । दिन भर युद्ध होने के बाद जब महाराज को भीमसिंहजी के निकल कर चले जाने की सूचना मिली, तब इन्होंने युद्ध बन्द करने की आज्ञा भेजकर सेना को वापस बुलवा लिया और उन राज-भक्त सरदारों को हर तरह से तसल्ली दिलवाई।
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इसके बाद महाराज ने सिंघी अखैराज को भेजकर गौडावाटी और मेड़ता प्रान्त के उन जागीरदारों से, जो महाराज - कुमार भीमसिंहजी के षड्यंत्र में सम्मिलित थे, दण्ड के रुपये वसूल किए ।
वि० सं० १८५० की आषाढ वदि ३० ( ई० स० १७६३ की ८ जुलाई ) को' रात्रि में जोधपुर में महाराजा विजयसिंहजी का स्वर्गवास हो गया ।
इन्होंने करीब ४० वर्ष राज्य किया था । इनके समय एक तो दिल्ली की बादशाहत शिथिल हो जाने से मरहटों का उपद्रव बढ़ गया था और दूसरे महाराजा रामसिंहजी और महाराजा बखतसिंहजी के आपस के झगड़े के कारण, जो उनके बाद वि० सं० १८२९ ( ई० स० १७७२ ) तक चलता रहा था, मारवाड़ के सरदारों में स्वतंत्रता आ गई थी। इसी से इनके राज्य में हमेशा एक न एक उपद्रव जारी रहा । यह
१. किसी किसी ख्यात में इस घटना का एक दिन पहले होना लिखा है ।
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