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मारवाड़ का इतिहास
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अधिनायकता में अपनी एक सेना उधर भेज दी ' । इस राठोड़-वाहिनी ने जयपुर-नरेश की सेना के साथ मिलकर तुंगा नामक स्थान में माधोजी की सेना का सामना किया । घमसान युद्ध होने के बाद मरहटों के पैर उखड़ गए और वे सनवाड़ की तरफ़ भाग चैले | इससे अजमेर पर महाराज का पूरा अधिकार हो गया । इस युद्ध में किशनगढ़नरेश ने भी राजकुमार मानसिंह का साथ दिया था । इससे मरहटों के परास्त हो भाग जाने पर राठोड़-सेना ने किशनगढ़ और रूपनगर को जा घेरा । सात महीने तक घरे रहने से किशनगढ़-नरेश प्रतापसिंहजी तंग गए और अन्त में उन्होंने तीन लाख रुपये दण्ड देना स्वीकार कर महाराज से संधि करली । इसके साथ ही उन्हें रूपनगर का अधिकार भी वीरसिंह के पुत्र अमरसिंह को देना पड़ा ।
वि० सं० १८४५ ( ई० स० १७८८ ) में किशनगढ़ - नरेश प्रतापसिंहजी स्वयं जोधपुर आकर महाराज से मिले और उन्होंने पुराने मनोमालिन्य को दूर कर फिर से मैत्री स्थापित की ।
वि० सं० १८४७ (ई० स० १७६० ) में माधोजी सिंधिया ने अपनी पुरानी हार का बदला लेने के लिये, तुकोजी को साथ लेकर, मारवाड़ पर चढ़ाई की । यद्यपि यह झगड़ा जयपुरवालों के कारण ही हुआ था, तथापि इस बार वे मरहटों से मिल गए और उनके मुक़ाबले को सेना भेजने में बहानेबाज़ी करने लगे । इस पर
१. ग्रांट डफ की हिस्ट्री ऑफ मरहटाज़, भा० २. पृ० १८१ ।
२. इस विषय का प्राधा दोहा प्रसिद्ध है:
'उदलती आमेर राखी राठोड़ा खरी ' ।
३. ख्यातों में लिखा है कि मरहटों ने, किशनगढ़ वालों की सहायता से अंबाजी इंगलिया की अधीनता में, एक बार फिर अजमेर पर अधिकार करने की कोशिश की थी। परंतु इसमें उन्हें सफलता नहीं मिली। इसके बाद महाराज की सेना ने चांदावतों से रामसर छीन लिया ।
४. जिस समय रूपनगर के स्वामी सरदारसिंहजी का स्वर्गवास होने लगा, उस समय उन्होंने अमरसिंह को गोद लेने की इछा प्रकट की थी । परंतु किशनगढ़-नरेश बहादुरसिंहजी ने उसकी एवज़ में अपने ज्येष्ठ पुत्र बिड़दसिंहजी को उनकी गोद बिठा दिया । इस पर अमरसिंह बाराज़ होकर महाराजा विजयसिंहजी के पास जोधपुर चला आया । इसीसे किशनगढ़ - नरेश प्रतापसिंहजी महाराज से नाराज़ हो गए थे ।
५. ख्यातों में लिखा है कि यद्यपि राठोड़ों ने जयपुर का पक्ष लेकर ही मरहटों से था, और इन्हीं की सहायता से उस समय जयपुर की रक्षा हुई थी, तथापि कछवाहों के
युद्ध किया
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