Book Title: Marwad Ka Itihas Part 01
Author(s): Vishweshwarnath Reu
Publisher: Archeaological Department Jodhpur

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Page 494
________________ महाराजा विजयसिंहजी की है। इसी बीच वि० सं० १८३८ (ई० सन् १७८१ ) में बीकानेर के महाराजकुमार राजसिंहजी, जो अपने पिता से अप्रसन्न हो जाने से देशणोक में रहते थे, जोधपुर चले आए । महाराजा विजयसिंहजी ने उन्हें बड़ी ख़ातिर के साथ अपने पास रख लिया और वि० सं० १८४२ (ई. सन् १७८५ ) में पिता-पुत्रों में मेल करवाकर उन्हें फिर बीकानेर मेज दिया। वि० सं० १८३६ (ई० सन् १७८२ ) में फिर टालपुरों ने उमरकोट पर अधिकार करने का उद्योग किया । परन्तु महाराज के जोधा और पातावत सरदारों की सैन्य ने, समय पर पहुँच, उन्हें सफल न होने दिया। वि० सं० १८३६ (ई. सन् १७७६ ) के करीब जयपुर-नरेश पृथ्वीसिंहजी का स्वर्गवास हो गया और उनके पीछे महाराजा प्रतापसिंहजी गद्दी पर बैठे । इसलिये कुछ सरदारों ने मिल कर पृथ्वीसिंहजी के बालक-राजकुमार मानसिंह को उसके ननिहाल भेज दिया । कुछ वर्ष बाद वह वहाँ से सिंधिया के पास पहुँचा । इसीसे वि० सं० १८४४ (ई० सन् १७८७ ) में मरहटों ने उसको गद्दी पर बिठाने के लिये जयपुर पर चढ़ाई की । इसकी सूचना पाते ही जयपुर-नरेश प्रतापसिंहजी ने महाराजा विजयसिंहजी से सहायता की प्रार्थना की । इस पर महाराज ने सिंघी भीमराज की इसके अलावा उक्त इतिहास में, लिखा है कि हि० स० ११६७ (ई० स० १७८३ ) में तीमूरशाह ने मीर फतैअलीखाँ को सारे ही सिंध प्रदेश का शासक नियत कर मियाँ अब्दुन्नबी को इज़्ज़त के साथ राज-कार्य से अवसर ग्रहण कर लेने को बाध्य कर दिया और उसके निर्वाह के लिये पैनशन नियत करदी। १. किसी किसी ख्यात में इस घटना का समय वि० सं० १८३७ भी लिखा मिलता है। नहीं ___कह सकते यह कहां तक ठीक है ? २. इनमें लाडनू का ठाकुर था। ३. उस समय ये मरहटे दिल्ली के बादशाह शाहआलम द्वितीय के स्वयंभू प्रतिनिधि बने हुए थे। (१) हिस्ट्री ऑफ सिंध, भाग २, पृ० २०२ । ३८७ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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