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महाराजा रामसिंहजी सिंह, आसोप ठाकुर दूंपावत कनीराम और आउवा ठाकुर चाँपावत कुशलसिंह महाराज से नाराज होकर नागोर चले गए; और बखतसिंहजी के दिल्ली में होने के कारण उनके राजकुमार विजयसिंहजी को साथ लेकर जोधपुर-राज्य के बीसलपुर, काकेलाव, बनाड़ आदि गाँवों में उपद्रव करने लगे। कुछ दिन बाद इसी प्रकार पौकरन ठाकुर चाँपावत देवीसिंह और पाली ठाकुर चाँपावत पेमसिंह भी महाराज से अप्रसन्न होकर राजकुमार विजयसिंहजी के पास जा पहुँचे । बीकानेर-नरेश गजसिंहजी और रूपनगर ( किशनगढ़ ) के स्वामी बहादुरसिंहजी ने पहले से ही राजाधिराज का पक्ष ले रक्खा था। परंतु जयपुर-नरेश ईश्वरीसिंहजी और मल्हारराव होल्कर, महाराज रामसिंहजी की तरफ़ थे । बखतसिंहजी के दिल्ली से लौट आने पर पीपाड़ के पास दोनों पक्षों के बीच घमसान युद्ध हुआ । ख्यातों में लिखा है कि इस युद्ध के समय बखतसिंहजी ने, सलाबतखाँ को समझाकर, सेना-संचालन का भार अपने ज़िम्मे लेना चाहा । परन्तु वह इसमें अपना अपमान समझ, सहमत न हुआ । इससे युद्ध के समय महाराज रामसिंहजी की सेना के प्रहार से बहुत-सी यवन-सेना नष्ट होगई और रण-खेत महाराजा रामसिंहजी के ही हाथ रहा । यह घटना विक्रम संवत् १८०७ ( ईसवी सन् १७५०) की है।
'सहरुल मुताखरीने' में इस घटना का हाल इस प्रकार लिखा है:
__ "हि० स० ११६१ (वि० सं० १८०५-ई० स० १७४८) में राजा बखतसिंह, जो अपने समय के राजपूताने के सब नरेशों में श्रेष्ठ था और जिसकी वीरता और बुद्धिमानी उस समय के सब राजाओं से बढ़ी-चढ़ी थी, दिल्ली आकर बादशाह अहमदशाह से मिला । वह अपने भतीजे राजा रामसिंह से जोधपुर, मेड़ता आदि का अधिकार छीनना चाहता था। इसलिये उसने, हर तरह की मदद देने का वादा कर, जुल्फिकारजंग को अजमेर की सूबेदारी लेने के लिये तैयार किया और इसके बाद वह नागोर को लौट गया । कुछ समय बाद जब 'अमीरुल उमरा' (जुल्फिकारजंग) को अजमेर की सूबेदारी मिली, तब वह अगले साल के अखीर (वि० सं० १८०६ ई० सन् १७४९) में कई अमीरों के साथ चौदह-पंद्रह हजार सैनिक लेकर दिल्ली से रवाना हुआ । मार्ग में यद्यपि साथ के अमीरों ने उसे बहुत मना किया, तथापि उसने नीमराने के स्वामी जाट-नरेश सूरजमल पर चढ़ाई कर दी । परंतु अन्त में, युद्ध में हार जाने के कारण
१. सहरुल मुताख़रीन, भा० ३, पृ. ८८३-८८५ ।
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