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महाराजा विजयसिंहजी ही रघुनाथराव ने भी मारवाड़ पर चढ़ाई की' । इस प्रकार जयापा के भाई दत्ताजी, पुत्र जनकोजी और रघुनाथ राव की सम्मिलित सेनाओं ने जोधपुर और नागोर को घेर लिया । इस विशाल मरहटा-वाहिनी से अकेले सामना करना हानिकारक जान महाराजा विजयसिंहजी बीकानेर पहुँचे और वहां से महाराजा गजसिंहजी को साथ लेकर महाराजा माधोसिंहजी से सहायता प्राप्त करने के लिये जयपुर गए । परन्तु माधोसिंहजी ने इनकी सहायता करने से इन्कार कर दिया। इस पर यह लौट कर बीकानेर होते हुए नागोर चले आएं । इसी बीच मारवाड़ में अकाल होने से मरहटों ने संधि करना स्वीकार कर लिया । इसलिये महाराज ने उन्हें २० लाख रुपये और अजमेर का प्रान्त देकर उनसे संधि करली । साथ ही मेड़ता, परबतसर, मारोठ, सोजत, जालोर आदि के परगने रामसिंहजी को दे दिएँ । इस प्रकार आपस का झगड़ा शान्त हो जाने पर महाराजा विजयसिंहजी जोधपुर लौट आए।
कि जयापा के घातकों में से एक वहीं पर मारा गया और दूसरा बचकर निकल गया। परंतु उक्त इतिहास में रामसिंहजी और विजयसिंहजी दोनों को अभयसिंहजी का पुत्र लिखा
है। यह ठीक नहीं है। (देखो भाग १, पृ० ५१३)। 'अजमेर' नामक इतिहास में इस घटना का समय ई० स० १७५६ (वि० सं० १८१३) लिखा है । (पृ० १७०)। १. 'हिन्दू पद पादशाही' नामक इतिहास में अन्ताजी मानकेश्वर का १०,००० सैनिकों के साथ
आकर राजपूताने में उपद्रव करना लिखा है । २. 'तवारीख राज श्री बीकानेर में लिखा है कि जयपुर-नरेश का विचार महाराजा विजयसिंहजी
को धोके से मार डालने का था। परंतु वह सफल न हो सके। (देखो पृ० १८४-१८५)। मारवाड़ की ख्यातों में लिखा है कि पहले जयपुर-नरेश महाराजा माधोसिंहजी ने महाराजा विजयसिंहजी का पक्ष लेना चाहा था। परंतु फिर रामसिंहजी के साथ के, स्वर्गवासी जयपुर-नरेश ईश्वरीसिंहजी की कन्या के, सम्बन्ध का और अपने कर्मचारियों के कहने का विचार कर उन्होंने अपना मत बदल दिया।
इसके बाद उन्होंने महाराजा विजयसिंहजी को कैद कर लेने का विचार किया। परंतु रीयाँ-ठाकुर जवानसिंह के कारण वह सफल न हो सके। ख्यातों से यह भी प्रकट होता है कि जयपुर-नरेश ने बीकानेर-नरेश गजसिंहजी को भी महाराज से जुदा करने के लिये उनका विवाह झिलाय ठाकुर की . कन्या से निश्चित कर दिया था। ३. ख्यातों में लिखा है कि इन परगनों के साथ ही खरवा, मसूदा, मिणाय, केकड़ी, देवलिये
के १६ गाँव और मसूदे के २७ गाँव रामसिंहजी को दिए गए थे। ( कहीं कहीं सांभर, सिवाना, और नावे का भी रामसिंहजी को दिया जाना लिखा है)।
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