________________
महाराजा विजयसिंहजी अगले वर्ष ( वि० सं० १८२८ ई० स० १७७१ में ) महाराज फिर नाथद्वारे की यात्रा को गए । इस बार बीकानेर-नरेश गजसिंहजी और कृष्णगढ़-नरेश बहादुरसिंहजी भी वहां आ गए थे । मौका देख महाराना अडसी (अरिसिंह ) जी भी वहां पहुंचे और महाराज से गोड़वाड़ का प्रांत लौटा देने का आग्रह करने लगे। परंतु इन्होंने यह बात स्वीकार ने की।
पहले लिखा जा चुका है कि जयपुर-नरेश ने अपना सांभर का हिस्सा खर्च के लिये रामसिंहजी को दे दिया था। इसलिये वि० सं० १८२६ ( ई० स० १७७२ ) में उनका स्वर्गवास होते ही उनके अधिकृत उस भाग पर जोधपुर वालों ने अधिकार कर लिया।
वि० सं० १८३१ के भादों ( ई० स० १७७४ के सितम्बर ) में आउवा-ठाकुर जैतसिंह जोधपुर के किले में मारा गया और आउवे पर महाराज की सेनाने अधिकार कर लिया । इसके तीन बर्ष बाद ( वि० सं० १८३४ ई० स० १७७७ में ) ठाकुर
विजयसिंहजी के नाम के पत्र से, जो जोधपुर में सुरक्षित है, इस सहायता की पुष्टि होती है। उक्त पत्र में महाराना ने महाराज से बड़े ही मर्मस्पर्शी शब्दों में सहायता की
प्रार्थना की है। १. कहते हैं कि उक्त प्रांत पर अधिकार करने के लिये उदयपुर वालों की तरफ से वि० सं०
१६०७ से १६१० (ई० सन् १८५० से १८५३) तक पूरी कोशिश की गई थी।
परंतु अन्त में भारत-सरकार ने भी उनका दावा खारिज कर दिया। २. कहते हैं कि लोगों ने महाराज से यह शिकायत की कि जैतसिंह महाराजकुमार को भड़काता
है और उसे बड़ा घमंड हो गया है। ख्यातों में लिखा है कि महाराजा विजयसिंहजी ने वैष्णवमतानुयायी होकर अपने राज्य में मांस और मदिरा का प्रचार रोक दिया था। परंतु पाउवा-ठाकुर जैतसिंह का खयाल था कि मेरे पिता कुशलसिंह ने महाराजा बखतसिंहजी को जोधपुर का राज्य दिलवाने में अपने प्राण दिए थे, इसलिये उसका पुत्र होने के कारण महाराज मेरे कार्यों में विशेष रोक-टोक नहीं करेंगे। इसीसे वह शक्ति का उपासक होने के कारण कभी-कभी पशु-वध कर लिया करता था । महाराज ने शिकायत आने पर कई बार उसे ऐसा करने से मना किया। परंतु उसने इनके कथन पर विशेष ध्यान नहीं दिया। इससे महाराज रुष्ट हो गए और एक रोज़ उसे किले में बुलवाकर धोके से मरवा डाला । किले के उत्तर की तरफ सिंगोरिये की भाकरी के पास, जहां पर उसका दाह संस्कार किया गया था, एक चबूतरा बनाया गया था। लोग उक्त स्थान को जैतसिंहजी का थड़ा कह कर अब तक पूजते हैं। इस पूजा का कारण शायद उसका अपने शाक्त-धर्म पर दृढ़ रह कर प्राण देना ही होगा।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com