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मारवाड़ का इतिहास
वि० सं० १८११ (ई० सन् १७५४ ) में रामसिंहजी ने जयापा सिंघिया की सहायता प्राप्त कर अपने गए हुए राज्य को फिर से प्राप्त करने के लिये मारवाड़ पर चढ़ाई की। इस पर महाराजा विजयसिंहजी जोधपुर का प्रबन्ध कर, शत्रु सैन्य का सामना करने के लिये, मेड़ते जा पहुँचे । बीकानेर-नरेश गजसिंहजी और किशनगढ़नरेश बहादुरसिंहजी भी, अपनी अपनी सेनाएं लेकर, महाराज की मदद को वहाँ आ गए। ___ कुछ दिनों बाद जब रामसिंहजी जयापा को साथ लिए, किशनगढ़ को लूटते हुए, अजमेर पर अधिकार कर, पुष्कर पहुँचे और वहां से आगे बढ़ आलणियावास को लूटते हुए गंगारडे में ठहरे, तब महाराजा विजयसिंहजी भी अपने दलबल सहित उनके मुकाबले को चले । इससे शीघ्र ही दोनों तरफ़ की सेनाओं के बीच युद्ध शुरू हो गया। ___ इसी बीच मरहटों की सेना का एक भाग ऊदावत भरतसिंह की अध्यक्षता में जैतारण में इकट्ठा हुआ । परन्तु डेवढ़ी का दारोगा अणदू शीघ्र ही मेड़ते से कुछ चुने हुए वीरों को लेकर वहां जा पहुँचा। इससे मरहटों को हारकर जैतारण से लौट जाना पड़ा। __यद्यपि गंगारडे में भी पहली वार के युद्ध में महाराजा विजयसिंहजी की ही विजय हुई थी, तथापि वि० सं० १८११ की आसोज वदि १३ (ई० सन् १७५४ की १४ सितम्बर ) को, दूसरी बार के युद्ध में महाराज का तोपखाना पीछे छूट जाने
१. ख्यातों में दत्ताजी का भी इस चढ़ाई में साथ होना लिखा है । इस युद्ध में जयपुर-नरेश
माधवसिंहजी प्रथम ने रामसिंहजी की सहायता की थी। (अजमेर, पृ० १७०)। २. किशनगढ़ राज्य के दावेदार, सामन्त सिंहजी के पुत्र, सरदारसिंहजी भी मरहटों के साथ
थे; क्योंकि जयापा ने उनके चचा बहादुरसिंहजी से किशनगढ़-राज्य का अधिकार
छीन कर, उन्हें वहाँ की गद्दी पर बिठाने का वादा किया था। ३. श्रीयुत हरबिलास सारडा ने अपने 'अजमेर' नामक इतिहास में लिखा है कि अजमेर
प्रान्त के खरवा और मसूदा के स्वामियों ने रामसिंह का और भिणाय, देवलिया और
टंटोती के स्वामियों ने विजयसिंह का पक्ष लिया था। ( देखो पृ० १७० )। ४. 'तवारीख राज श्री बीकानेर में लिखा है कि मरहटों को हार कर सात कोस पीछे हटना पड़ा था। (देखो पृ० १८२)।
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