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मारवाड़ का इतिहास मिली'। यह देख उन्होंने बीकानेर-नरेश गजसिंहजी और रूपनगर ( किशनगढ़ )नरेश बहादुरसिंहजी को साथ लेकर रायपुर पर आक्रमण किया और वहां के ठाकुर को अधीनस्थ करने के बाद सोजत पर भी अधिकार कर लिया। वि० सं० १८०८ के वैशाख (ई० सन् १७५१ के अप्रेल) में महाराजा रामसिंहजी के और बखतसिंहजी के बीच सलावास में युद्ध हुआ और इसके बाद 'रूपावास' आदि में भी कई लड़ाइयां हुई । अन्त में जैसे ही महाराज लौटकर जोधपुर पहुँचे, वैसे ही राजाधिराज के मेड़ते की तरफ़ आने की सूचना मिली । इसलिये यह जोधपुर में केवल एक रात रहकर शीघ्र ही मेड़ते जा पहुँचे। इसकी ख़बर पाते ही बखतसिंहजी गगराणे में ठहर गए, और उन्होंने रास-ठाकुर केसरीसिंह की सलाह से, जैतारण होकर बलूँदे पर चढ़ाई की। परन्तु मार्ग में बांजाकूड़ी के मुकाम पर बलूँदे के ठाकुर ने स्वयं आकर उनकी अधीनता स्वीकार करली । इसलिये वह उधर न जाकर नींबाज की तरफ़ चले । वहाँ के ठाकुर कल्याणसिंह ने उनका बड़ा
आदर-सत्कार किया। इसके बाद वह रायपुर होकर बीलाड़े और पाल को लूटते हुए, वि० सं० १८०८ के आषाढ़ ( ई० सन् १७५१ के जून ) में, जोधपुर पर अधिकार करने के विचार से, रातानाडा-तालाब के स्थान पर आकर ठहरे।
वि० सं० १८०७ (ई० सन् १७५० ) में जयपुर-नरेश ईश्वरीसिंहजी का देहान्त हो चुका था। इसलिये महाराजा रामसिंहजी को उस तरफ़ से सहायता मिलनी बंद होगई थी। इधर मारवाड़ के मेड़तिये सरदारों के सिवा करीब-करीब अन्य सभी सरदार महाराज से बदल गए थे । इसी से जोधपुर पर बखतसिंहजी के आक्रमण करने पर कुछ ही देर की लड़ाई के बाद नगर के सिंधी सिपाहियों ने जोधपुर-शहर का सिवानची नामक दरवाजा खोल दिया। इस घटना से नगर पर राजाधिराज बखतसिंहजी का अधिकार
१. 'तवारीख़ राज श्री बीकानेर' में इसी वर्ष की अगहन बदी ६ (ई. स० १७५• की ११
नवंबर) को मेड़ते के युद्ध में रामसिंहजी का हारना लिखा है । (पृ० १७८)। इसी
के बाद की लड़ाई में रीयाँ का ठाकुर शेरसिंह मारा गया था। २. इस विषय का यह दोहा मारवाड़ में प्रसिद्ध है:
"रामै तूं राजी नहीं, दीनो उत्तर देश ।
जोधाणो माला करै, आव धणी बखतेश ॥" ३. यह घटना वि० सं० १८०८ की आषाढ़ बदी १० (ई० सन् १७५१ की ७ जून) को है।
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