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मारवाड़ का इतिहास किया । इसमें उपस्थित होनेवालों ने एक दूसरे की सहायता करने की प्रतिज्ञा कर वि० सं० १७९१ की श्रावण वदी १३ ( ई० सन् १७३४ की १७ जुलाई) को एक प्रतिज्ञापत्र लिखा । इसके बाद वर्षा-ऋतु के अंत में रामपुरे में अगला कार्य निश्चित करने का वादा कर यह देवलिये होते हुए जोधपुर लौट आएं।
इसी वर्ष वि० सं० १७९१-२२ (ई० सन् १७३४-३५) में यह मल्हारराव को दबाने के लिये शम्सामुद्दौला के साथ अजमेर और साँभर की तरफ़ गए । यद्यपि उस समय महाराज की सम्मति युद्ध के पक्ष में थी, तथापि राजा जयसिंहजी ने बीच में पड़ उसे रोक दिया, और बादशाह की तरफ़ से मरहटों को चौथ देने का प्रबन्ध करवा दिया।
वि० सं० १७९२ (ई० सन् १७३५ ) में राजाधिराज बखतसिंहजी ने दौलतसिंह साँखला आदि की मिलावट से एक बार फिर बीकानेर पर चढ़ाई करने का प्रबन्ध किया । परन्तु इसमें उन्हें विशेष सफलता नहीं हुई ।
इसके बाद वि० सं० १७९२ के ज्येष्ठ ( ई० सन् १७३५ की मई ) में शम्सामुद्दौला के साथ ही महाराज भी दिल्ली चले गएँ।
१. ख्यातों में लिखा है कि उस स्थान पर महाराज ने अपने लिये लाल डेरा खड़ा करवाया था।
यह सूचना पाकर बादशाह इनसे नाराज़ हो गया । परंतु इनके वकील भंडारी अमरसी ने उसे समझाया कि मरहटों के बढ़ते हुए उपद्रव को दबाने का प्रबंध करने के लिये राजस्थान के नरेशों का एकत्रित होना आवश्यक था । परंतु शाही खेमा खड़ा किए विना ऐसा होना असंभव होने से ही महाराज ने लाल खेमा खड़ा करवाया था। यह सुन बादशाह ने
महाराज को खिलात और फरमान भेजकर अपनी प्रसन्नता प्रकट की। २. कुछ ख्यातों में इस घटना का समय वि० सं० १७६१ और कुछ में वि० सं० १७६२
दिया है । उनमें महाराज का शाहपुरेवालों से देवलिया वापस छीनकर राठोड़ रघुनाथसिंह को देना और शाहपुरे के राजा उम्मैदसिंहजी का इनके पास आकर आजिजी प्रकट करना
भी लिखा है। ३. लेटर मुग़ल्स, भा० २ पृ० २८० । यद्यपि इसमें महाराज का नाम नहीं है. तथापि मारवाड़
की ख्यातों से इस बात की पुष्टि होती है । महाराज के, अपने वकील के नाम लिखे, वि० सं० १७६१ की आश्विन बदी १ के, पत्र में इनके ग्वाँ दौरों की सहायता के लिये शीघ्र ही जयपुर की तरफ रवाना होने के विचार का उल्लेख है। ४. इसी वर्ष बुरहानुल्मुल्क ने सोहराबखाँ को वीरमगाँव का शासक नियत किया । परंतु भंडारी
रत्नसिंह के विरोध करने पर बादशाह ने उक्त नगर फिर से महाराज की जागीर में रख
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