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महाराजा अभयसिंहजी होता है कि यद्यपि उस समय बखतसिंहजी के पास केवल ५,००० और जयसिंहजी के पास करीब ५०,००० सैनिक थे, तथापि उन्होंने बड़ी वीरता से जयपुरवालों पर आक्रमण किया । एक बार तो जयपुरवालों के पैर ही उखड़ गए थे। परंतु बखतसिंहजी जयसिंहजी को सौंप अजमेर का शासन भी उन्हीं के अधिकार में दे दिया । परन्तु ई. सन् १७४० (वि० सं० १७६७) में महाराजा अभयसिंहजी और उनके छोटे भ्राता बखतसिंहजी ने जयपुर
और अजमेर पर चढ़ाई करने का इरादा किया। इसी के अनुसार बख़तसिंहजी ने जाकर अजमेर पर अधिकार कर लिया। इस कार्य में भिणाय और पिसाँगण के राठोड़-शासकों ने भी उन्हें सहायता दी थी। जब इसकी सूचना जयसिंहजी को मिली, तब वे ५०,००० सैनिकों को लेकर आगरे मे उनके मुक़ाबले को चले । परन्तु उनके गँगवाना स्थान पर पहुँचने पर, ई. सन् १७४१ की ८ जून (वि० सं० १७६८ की आषाढ़-सुदी ६) को. अकेले बखतसिंहजी ने केवल ५,००० सवारों को साथ लेकर जयपुर-नरेश का सामना किया। इसके बाद वह पुष्कर में अपने बड़े भ्राता अभयसिंहजी के पास चले गए । अनंतर दोनों भाइयों ने मिलकर फिर (अजमेर में ४ कोस पूर्व पर के ) लाडपुरा नामक गाँव में जयसिंहजी की सेना को जा घेरा । परन्तु इस वार के हमले में जयसिंहजी ने अपने को राठोड़ों से लोहा लेने में असमर्थ समझ, रघुनाथ भंडारी के द्वारा, संधि करली । इसी के अनुसार जयसिंहजी ने परबतसर, रामसर, अजमेर आदि के सात परगने अभयसिंहजी को सौंप दिए । परन्तु फिर भी अजमेर के किले पर जयसिंहजी का ही अधिकार रहा । अतः ई० सन् १७४३ के अक्टोबर (वि सं० १८०० के कार्तिक) में उनके मरने पर अभयसिंहजी ने सेना भेज कर उस पर अधिकार कर लिया । इसी के साथ राजा सूरजमल गौड़ से राजगढ़ भी छीन लिया।
इसके बाद सवाई राजा जयसिंहजी के उत्तराधिकारी राजा ईश्वरीसिंहजी ने फिर से अजमेर पर अधिकार करने के लिये चढ़ाई की। इसकी सूचना पाते ही महाराजा अभयसिंहजी अपने छोटे भ्राता बखतसिंहजी के साथ वहां जा पहुँचे, और इन्होंने अजमेर की रक्षा का पूरा-पूरा प्रबन्ध कर लिया ! यहीं पर कोटे का भट्ट गोविंदराम भी ५,००० सवारों के साथ आकर महाराज के साथ हो गया। अभयसिंह जी के पास उस समय ३०,००० सवार हो गए थे । अतः ईश्वरीसिंहजी के (अजमेर से ८ कोस पर के) ढानी नामक स्थान पर पहुंचने पर दोनों तरफ से युद्ध की तैयारी हुई । परन्तु इसी बीच जयपुर के रायमल और जोधपुर के पुरोहित जग्गू ( जगन्नाथ ) ने बीच में पड़ दोनों नरेशों में संधि करवा दी (देखो पृ० १६७-१६६)।
परन्तु वास्तव में चूडामन जाट हि• सन् ११३३ (वि० सं० १७७८ ई० सन् १७२१) में ही मर चुका था । अतः ई० सन् १७३१ में वह इस उपद्रव में कैसे शरीक हुआ होगा ? (देखो लेटर मुग़ल्स, भा॰ २, पृ० १२२ और ऑरियंटल बायोग्राफ़िकल डिक्श्नरी, पृ० ११५) ।
कर्नल टॉड ने गँगवाने के युद्ध का वर्णन इसप्रकार किया है:
जैसे ही दोनों तरफ की सेनाएँ एक दूसरी के पास पहुंची, वैसे ही बखतसिंह ने अपनी सेना लेकर आँबेर की विशाल-वाहिनी पर हमला कर दिया । इसके बाद वह तलवार की धार और भाले की नोक से शत्रु-सैन्य को नष्ट करता और चीरता हुआ उसके भीतर प्रवेश करने लगा । परन्तु जिस समय उसने मुड़कर देखा, उस समय उसके साथ के सवारों में से केवल ६० सवार ही बाकी बचे
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