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मारवाड़ का इतिहास
समुचित स्थान पर इनके मुकाबले का प्रबंध करवा दिया । इसीसे वहाँ पहुँचने पर महाराज की सेना के आगे बढ़ने में जगह-जगह बाधा उपस्थित होने लगी। फिर भी महाराज अपनी वीर-वाहिनी के साथ, बड़ी वीरता से शत्रुओं का दमन करते और उनकी उपस्थित की हुई बाधाओं को हटाते हुए, नागोर के पास जा पहुँचे । इस पर इनके बढ़ते हुए दल का मार्ग रोकने के लिये स्वयं राजाधिराज को आगे आकर मुकाबला करना पड़ा । कुछ दिनों तक तो दोनों तरफ़ के राठोड़-वीर आपस में लड़कर अपने ही कुटुंबियों और मित्रों के रक्त से रणभूमि को सींचते रहे । परंतु अन्त में बख़तसिंहजी के जालोर का प्रांत लौटा देने की प्रतिज्ञा कर लेने पर महाराज अपनी सेना के साथ मेड़ते लौट आएं। इसके कुछ दिन बाद ही राजाधिराज बखतसिंहजी, जालोर लौटाने का विचार त्यागकर, बादशाह अहमदशाह की सहायता प्राप्त करने के लिये दिल्ली चले गए । परंतु उस समय मरहटों के उपद्रव के कारण दिल्ली की बादशाहत नाम मात्र की रह गई थी । इसलिये उधर से महायता मिलना असंभव था । यह देख राजाधिराज ने 'अमीरुल उमरा' सलाबतखाँ (जुल्फिकारजंग ) को अजमेर पर अधिकार करने में, मरहटों के विरुद्ध, सहायता देने का वादा कर, उससे जोधपुर पर अधिकार करने में सहायता माँगी । जैसे ही इस घटना की सूचना महाराजा रामसिंहजी को मिली, वैसे ही इन्होंने भी जयपुर-नरेश ईश्वरीसिंहजी से सहायता प्राप्त करने का प्रबंध कर लिया । इसी वीच रास ठाकुर ऊदावत केसरीसिंह, नींबाज ठाकुर कल्याण
१. राजाधिराज बखतसिंहजी ने सोचा कि मार्ग में जिस समय महाराजा रामसिंहजी की सेना
देसवाल आदि की गढ़ियों पर अधिकार करने में उलझी होगी, उस समय पीछे से आक्रमण कर उसका शिविर और सामान आसानी से लूट लिया जायगा । परंतु महाराज के साथ के
दूरदर्शी सरदारों ने ऐसा अवसर ही न आने दिया। २. ऐसा भी लिखा मिलता है कि जयपुर-नरेश ईश्वरीसिंहजी ने कह सुनकर यह प्रबंध कर दिया
था कि बखतसिंहजी को जालोर के बदले अजमेर प्रांत के कुछ स्थान सौंप दिए जायें और जालोर की मोरचेबंदी को ठीक करने में जो तीन लाख रुपये खर्च हुए हैं, वे भी जोधपुर के खज़ाने से दे दिए जायें । परंतु जब तक यह रुपया न दिया जाय, तब तक जालोर पर
बखतसिंहजी का ही अधिकार रहे । (तवारीख राज श्री बीकानेर, पृ० १७७)। ३. विक्रम संवत् १८०५ (ईसवी सन् १७४८) में बादशाह अह्मदशाह ने इसे अपना 'मीर
बख्शी' बनाया था । ४. जयपुर-नरेश महाराजा ईश्वरीसिंहजी की कन्या का विवाह महाराजा रामसिंहजी से होना
निश्चित हो चुका था। इसी से वह इनकी सहायता को तैयारहुए थे।
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