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मारवाड़ का इतिहास
तक यह अधूरा ही रह गया था । इसीसे बाद में वि० सं० १८६० (ई० सन् १८०३ ) में समाप्त हुआ ), मंडोर का दरवाजा (डेवढ़ी) और उस पर का मकान, देवताओं की मूर्तियाँ (जो महाराजा अजितसिंहजी की बनवाई पाबू आदि वीरों की मूर्तियों के पास ही पहाड़ काटकर बनवाई गई थीं), उन मूर्तियों का दालान, जोधपुर के किले का पक्का कोट, गोल की तरफ़ की पूर्वी बुर्जे (ये अधूरी ही पड़ी हैं, और अभयशाही बुों के नाम से प्रसिद्ध हैं ), किले में का चौकेलाव का फॅा, बाग और फतहपौल ( यह दरवाजा अहमदाबाद-विजय की यादगार में बनवाया गया था । इस युद्ध में विजय प्राप्त करने के बाद महाराज बहुत-से द्रव्य के साथ ही अनेक बहुमूल्य वस्तुएँ भी जोधपुर में लाए थे । उनमें का 'दल-बादल' नामक बड़ा शामियाना आज तक बड़े-बड़े दरबारों के समय काम में लाया जाता है, और 'इंद्रविमान' नामक हाथी का रथ सूरसागर नामक स्थान में रक्खा हुआ है)।
१. जोधपुर के किले में का फ़तहमहल पर का फूलमहल और कछवाहीजी का महल भी
इन्हीं के बनवाए बतलाए जाते हैं।
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