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महाराजा अजितसिंहजी की सम्मिलित सेनाओं ने ऑबेर पर भी अधिकार कर लिया था। इसीसे जयसिंहजी
१. 'लेटर मुग़ल्स' में लिखा है कि बादशाह को दोनों नरेशों के ऑबेर पर सम्मिलित आक्रमण
करने की सूचना ई० सन् १७०८ की १६ जून को मिली थी, और इसके एक सप्ताह बाद यह भी ज्ञात हुआ कि इन दोनों नरेशों ने हिंदौन और बयाना के फौजदार को भी हरा दिया है । (ये दोनों प्रांत आगरे से क्रमशः ७० और ५० मील नैर्ऋत्य-कोण पर थे।) इस पर उसने अमीरखाँ को सेना एकत्रित कर उधर जाने की आज्ञा दी । इसके कुछ दिन बाद ही उसे अजमेर के सूबेदार शुजाअतखा बाराह का पत्र मिला । उसमें लिखा था कि दोनों नरेशों ने मिलकर अपने सेनापति रामचन्द्र और साँवलदास की अधीनता में २,००० सवार और १५,००० पैदल आँवर पर आक्रमण करने के लिये भेजे थे । परन्तु वहाँ के सूबेदार ने उन्हें सफल न होने दिया । इस झूठी सूचना को सच्ची समम बादशाह ने बड़ी प्रसन्नता प्रकट की । इसी बीच बादशाह ने असदखाँ-वकीले मुतलक को दिल्ली से आगरे पहुँच उधर के उपद्रव को दबाने की आज्ञा भेजी । इसी प्रकार अवध के सूबेदार खाँदौराँ, इलाहाबाद के सूबेदार खाँजहाँ और मुरादाबाद के फौजदार मुहम्मद अमीनखाँ को भी आज्ञा दी गई कि वे अपनी आधी-आधी सेनाओं को लेकर असदखाँ की मदद पर जायें । इसी अवसर पर मेवात के फौजदार ने भी दिल्ली के सूबेदार से सेना बढ़ाने के लिये तीन लाख रुपये की मदद माँगी । परन्तु उसने वह पत्र असदखाँ के पास भेज दिया। इस पर असदखाँ ने १,००,००० रुपये नकद भेजकर अपनी सेना को वहाँ जाने की आज्ञा दे दी । परन्तु २१ अगस्त (आश्विन बदी १) को उपर्युक्त झूठी सूचना का भेद खुल गया, और बादशाह को ज्ञात हो गया कि राजा जयसिंहजी ने २०,००० सैनिकों के साथ नैश आक्रमण कर आँबेर के किले
पर अधिकार कर लिया है। इसके बाद बरसात के समाप्त होते ही राजपूत-वीरों ने मेड़ते होते हुए अजमेर पर हमला किया, और वहाँ से आगे बढ़ साँभर पर चढ़ाई की । इस पर मेवात, मेड़ता और नारनौल के फौजदार भी तत्काल इनके मुकाबले को आ पहुँचे । यद्यपि युद्ध में एक बार तो राजपूत-सेना के पैर उखड़ गए, तथापि कुछ देर बाद ही उसे हुसैनखाँ के मारे जाने की सूचना मिल गई । इससे मैदान दोनों नरेयों के हाथ रहा। इसके अगले वर्ष महाराना के सेनापति साँवलदास ने पुर और मॉडल के फौजदार को भगाकर युद्ध में वीरगति प्राप्त की। (भा० १, पृ० ६८-७०)।
__ 'मासिरेआलमगीरी' ( भा॰ २, पृ० ५०० ) में लिखा है कि जब आँबेर के फ़ौजदार सैयद हुसैनखाँ को महाराजा अजितसिंहजी और राजा जयसिंहजी के युद्ध से हट जाने और आँबेर पर
आक्रमण करने के बिचार की सूचना मिली, तब उसने वहाँ के किले की रक्षा का पूरा-पूरा प्रबंध किया। परंतु राजपूत सैनिकों के पहुंचते ही उसकी नई भरती की हुई सेना घबराकर भाग गई । इस पर खाँ ने बचे हुए सैनिकों के साथ किले से निकलकर राठोड़ दुर्गादास का सामना किया । यद्यपि राजपूत पूरी तौर से सफल न हो सके, तथापि ख़ाँ का डेरा लूट लिया गया, और उसका पुत्र, जो शिविर
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