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महाराजा अजितसिंहजी शम्सामुद्दौला का विचार था कि यदि बादशाह का ऐसा ही आग्रह हो, तो महाराज से अजमेर का सूबा लेकर गुजरात का सूबा उन्हीं की अधीनता में छोड़ दिया जाय । परंतु हैदरकुलीखाँ आदि को यह बात पसंद न थी । इसीसे समादतख़ाँ को महाराज पर चढ़ाई करने की आज्ञा दी गई थी । परंतु जब वह पहले लिखे अनुसार कृतकार्य न हो सका, तब यह काम कमरुद्दीनख़ाँ को सौंपा गया । इस पर उसने बादशाह से प्रार्थना की कि सैयद अब्दुल्लाखाँ और उसके रिश्तेदारों के अपराधों को क्षमा कर उन्हें उसके साथ जाने की आज्ञा दी जाय । परन्तु बादशाह ने यह बात स्वीकार न की ।
इसके बाद वि० सं० १७७८ के कार्त्तिक ( ई० स० १७२१ के अक्टोबर ) में हैदरकुलीखाँ को गुजरात की और सैयद मुज़फ़्फ़र लीखाँ को अजमेर की सूबेदारी दी गंई । इस पर हैदरकुली ने अपना नायब भेजकर महाराज के प्रतिनिधि अनोपचन्द और नाहरख़ाँ से गुजरात का शासन ले लिया; परंतु मुज़फ़्फ़रखाँ ने स्वयं जाकर अजमेर पर अधिकार करने का इरादा किया । इसी के अनुसार जिस समय वह मनोहरपुर पहुँचा, उस समय तक उसके पास क़रीब २०,००० सैनिक जमा हो गए थे । इसकी सूचना पाते ही महाराज ने भी महाराजकुमार अभयसिंहजी को मुज़फ़्फ़र का मार्ग रोकने के लिये रवाना कर दिया ।
बादशाह को खयाल था कि शाही सेना की चढ़ाई का समाचार पाते ही महाराज डरकर उसकी अधीनता स्वीकार कर लेंगे । परंतु जब उसे अपनी यह इच्छा पूर्ण होती न दिखाई दी, तब उसने मुज़फ़्फ़र को मनोहरपुर में ही ठहर जाने की आज्ञा लिख भेजी । इसके अनुसार उसे तीन मास तक वहाँ रुकना पड़ा । इसी बीच उसका सारा खजाना समाप्त हो गया, और रसद की कमी हो जाने के सेना के बहुत से सिपाही उसे छोड़कर अपने-अपने घरों को लौट दशा देख बेरनरेश जयसिंहजी ने अपने सेनापति के द्वारा उसे बेर बुलवा लिया । परंतु अपनी
कारण उसकी गए। उसकी यह
रतलाम का अधिकार फिर से राजा मानसिंहजी को दिलवा दिया । परंतु इस घटना के बारे में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जासकता ।
१. लेटर मुगुल्स, भा० २, पृ० १०८ और सैहरुल मुताख़रीन, पृ० ४५२ ।
२. यह नगर जयपुर मे ३५ मील
३. लेटर मुग़ल्स, भा० २, पृ० १०८ - १०६ ।
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उत्तर और अजमेर से १३० मील ईशान कोण में है ।
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