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महाराजा अभयसिंहजी कुछ दिनों में यात्रा का प्रबन्ध ठीक हो जाने पर सरबुलंद आगरे की तरफ़ चला गया, और महाराज ने वि० सं० १७८७ की कार्तिक सुदी १ (ई० सन् १७३० की ७ नवंबर ) को अपने भ्राता बखतसिंहजी के साथ नगर में प्रवेश कर भादर के किले में निवास किया। इसके बाद इन्होंने वहाँ के प्रबन्ध की देख-भाल के लिये भंडारी रत्नसिंह को अपना नायब नियुक्त किया ।
होता है । इसी प्रकार किसी-किसी ख्यात में आश्विन सुदी १२ को सरबुलंद का हिम्मत हारकर नींबाज ठाकुर अमरसिंह को संधि के लिये बुलवाना और फिर दोनों पक्षों के बीच संधि होना, तथा इसके बाद कार्तिक बदी ७ को सरबुलंद का गुजरात से रवाना होना
लिखा है। मूल में इस युद्ध की जो तिथियाँ दी गई हैं, वे 'लेटर मुगल्स' के अनुसार हैं ।
महाराज के, शाही दरबार में स्थित, अपने वकील के नाम लिखे, वि० सं० १७८७ की कार्तिक सुदी १२ के, उपर्युक्त पत्र से यह भी ज्ञात होता है कि इस युद्ध का सारा प्रबन्ध महाराज ने अपनी ही तरफ़ से किया था। बादशाह की तरफ से तो केवल करीमखाँ, २०० सिपाहियों के साथ, उनके पास नियुक्त किया गया था।
१. लेटर मुगल्स, भा॰ २, पृ० २१२-२१३ ।
परंतु महाराज की तरफ से शाही दरबार में स्थित अपने वकील के नाम लिखे, वि० सं०१७८७ की कार्तिक बदी ४ के पत्र में सरबुलंद के सूबा छोड़ कर चले जाने और भादर के किले के विजय होने का उल्लेख मिलता है।
'सहरुलमुताख़रीन' में इस घटना का हाल इस प्रकार लिखा है:
जब बादशाह रिश्वत की शिकायतों के कारण रौशनुद्दौला से अप्रसन्न हो गया, तब शाही दरबार में शम्सामुद्दौला का प्रभाव बढ़ने लगा । इसी अवसर पर उस (शम्सामुद्दौला ) ने रौशनुद्दौला के पक्ष वाले सरबुलंदखाँ के एवज़ में महाराजा अभयसिंहजी को गुजरात का सूबेदार नियुक्त करवा कर उक्त पद की सनद इनके पास भेज दी। साथ ही उसने इन्हें शीघ्र गुजरात पहुँच सरबुलंद को दिल्ली भेज देने का भी लिख भेजा । परंतु अभयसिंहजी ने सरबुलंद से गुजरात का अधिकार ले लेना एक साधारण कार्य जान अपने प्रतिनिधि को कुछ सेना देकर वहाँ भेज दिया। जब वहाँ पर उसे सफलता नहीं हुई, तब महाराज ने एक दूसरे प्रतिनिधि को वहाँ जाने की आज्ञा दी । इसके साथ पहले से कुछ अधिक सेना भेजी गई थी। परंतु सरबुलंद ने उसे भी कृत कार्य न होने दिया । यह देख स्वयं महाराज अभयसिंहजी ४०-५० हज़ार सैनिक लेकर गुजरात को चले । इस पर सरबुलंद ने कई कोस आगे बढ़ इनका सामना किया । यद्यपि एक बार तो उसने इनको पीछे हटा दिया, तथापि अन्त में उसे संधि का प्रस्ताव करना पड़ा । इसके बाद वह स्वयं सायंकाल के समय सादे कपड़े पहन और थोड़े से नौकरों को साथ ले महाराज के डेरे पर पहुँचा । महाराज को इससे बड़ा आश्चर्य हुआ । पर इन्होंने उसे यथोचित सत्कार के साथ अपने पास बिठाया। इसके बाद उसने महाराज से कहा कि महाराजा अजितसिंहजी मेरे पगड़ी-बदल भाई थे, अतः आप मेरे भतीजे हैं। मैंने यह युद्ध केवल अपनी इज़्ज़त बचाने के
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