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मारवाड़ का इतिहास
इसी वर्ष महाराज ने राजाधिराज बखतसिंहजी को पाटन का सुबेदार नियुक्त कर उनके नायब को वहाँ पर प्रबन्ध करने के लिये भेज दिया ।
अगले वर्ष ( वि० सं० १७८८ - ई० सन् १७३१ में) बाजीराव पेशवा ने बड़ोदे पर चढ़ाई की । उस समय उक्त नगर पीलाजी गायकवाड़ के अधिकार में था । इसकी सूचना पाकर महाराजा अभयसिंहजी ने पेशवा को अहमदाबाद बुलवाया, और उसे,
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लिये किया है । मेरे और आपके बीच किसी तरह की व्यक्तिगत शत्रुता नहीं है । अब आप इस सूबे का कार्य सँभालें, और मेरे ख़र्च के लिये कुछ रुपये देकर मेरी यात्रा के लिये भार- बरदारी का प्रबन्ध कर दें | महाराज ने तत्काल उसके कहने के अनुसार सब प्रबंध कर देने की आज्ञा दे दी । जब सरबुलंद को महाराज की तरफ का पूरा-पूरा विश्वास हो गया, तब उसने पुराने सम्बन्ध का उल्लेख कर अपनी सुफ़ेद पगड़ी महाराज के सिर पर रख दी, और उनकी बहुमूल्य उतारकर अपने सिर पर रख ली। इसके बाद वह महाराज से प्रेमलिंगन कर बिदा हो गया ।
पगड़ी, जिसमें अनेक रत्न टके थे,
परंतु जिस समय सरबुलंद दिल्ली के मार्ग में था, उस समय शम्सामुद्दौला ने कुछ गुर्जबरदारों के. साथ उसके पास यह शाही आज्ञा भिजवा दी कि महाराजा अभयसिंहजी का सामना करने के अपराध में उसके लिये दरबार में उपस्थित होने की मनाई हो गई है । इसलिये जब तक दूसरी शाही प्रज्ञा न मिले, तब तक वह दिल्ली न आकर मार्ग में ही ठहर जाय ।
शाही दरबार का यह रंग ढंग देख कुछ काल बाद आसफजहाँ ने राजा साहू के सेनापति बाजीराव को अभयसिंहजी के प्रतिनिधि से गुजरात छीन लेने के लिये तैयार किया । इसी से अन्त में उक्त प्रदेश मरहटों के अधिकार में चला गया। इस पर महाराज ने भी उधर विशेष ध्यान नहीं दिया । ( देखो भा० २ पृ० ४६२- ४६३ ) ।
महाराज के शाही दरबार में स्थित अपने वकील नाम लिखे अनेक पत्रों से प्रकट होता है कि मरहटों के लगातार के उपद्रवों और सरबुलंद की लूट-खसोट से अहमदाबाद का सूबा उजड़ गया था। इससे वहाँ की आमदनी से सेना का वेतन भी नहीं चुकाया जा सकता था । परंतु शाही प्रधान मन्त्री रुपये भेजने में ढील करता था। इसलिये स्वयं महाराज भी वहाँ रहना पसंद नहीं करते थे ।
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१. बाँबे गज़ेटियर, भा० १, खंड १, पृ० ३१२ । वहीं पर यह भी लिखा है कि महाराज के अहमदाबाद पहुँचने पर ( सलावत मुहम्मद खाँ बाबी के पुत्र ) शेरखाँ बाबी ने हाज़िर हो कर एक हाथी और कुछ घोड़े इनके नज़र किए। इस पर महाराज ने उसके मृत पिता की जागीर उसे देकर इसकी सूचना बादशाह के पास भेज दी । साथ ही कैवे ( खंभात ) के पास के प्रदेश का, जिसकी आमदनी स्वयं महाराज के लिये नियत थी, प्रबंध फ़िदाउद्दीन खाँ को सौंपा । ( देखो भा० १, खंड १, पृ० ३११ ) ।
२. महाराज के अपने वकील के नाम लिखे, वि० सं० १७८७ की माघ बदी ८ के पत्र से ज्ञात होता है कि इसके पूर्व ही बाजीराव और चिमनाजी ४० हज़ार सवारों के साथ माही के उस पार उतर चुके थे, और कंठाजी, पीलू, सूदा और त्र्यंबकराव आदि एक बड़ी सेना लेकर सूरत पहुँच चुके थे ।
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