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मारवाड़ का इतिहास
इसके बाद ही नींबाज ठाकुर ऊदावत अमरसिंह आदि के द्वारा बातचीत तय होकर महारांज और सरबुलंद के बीच संधि हो गई । इससे गुजरात का सूबा उसने महाराज को सौंप दिया और इसकी एवज में महाराज ने उसे उसकी सेना के वेतन आदि के लिये एक लाख रुपये नकद और वहाँ से जाने के समय भार-बरदारी की गाड़ियाँ और ऊँट देने का वादा किया ।
इस प्रकार झगड़ा शांत हो जाने पर सरबुलंदखाँ स्वयं महाराज के कैंप में आकर उनसे मिला । बातों ही बातों में उसने स्वर्गवासी महाराजा अजितसिंहजी के साथ की अपनी मित्रता का वर्णन कर महाराज की पगड़ी से अपनी पगड़ी बदल ली ।
बाग और मुहम्मद अमीनखाँ के बाग़ की तरफ़ चले जाने से ७मी के दिन नगर के पश्चिम की तरफ़ भादर के किले के सामने (फतेपुर के पास नदी के किनारे ) मोरचे खड़े किए गए । यह देख किले और शहरपनाह से शत्रु की तोपें गोले बरसाने लगीं । तीन दिन तक मोरचों की लड़ाई होती रही। परन्तु चौथे दिन १०मी को, किले के पतन के लक्षण देख, सबलंद ने ८ हज़ार सवारों
और १० हज़ार पैदल सिपाहियों के साथ महाराज की सेना पर हमला कर दिया । इसमें शत्रु के बहुतसे योद्धा मारे गए। इसके बाद महाराज और राजाधिराज ने मोरचों से आगे बढ़ सरबुलंद पर प्रत्याक्रमण किया । यह देख उसका तोपखाना इन पर गोले बरसाने लगा. और शत्रु-सैनिक गाँव की
आड़ में छिप गए । परन्तु महाराज ने इसकी कुछ भी परवा न कर अपने सवारों की ३ अनियाँ बनाई, और ये सब एक ही बार में तोपखाने से आगे बढ़ तत्काल शत्रु के सामने जा पहुँची । दो घंटे के युद्ध के बाद शत्रु के पैर उखड़ गए, और वह भाग कर डेढ़ कोस पर के कासिमपुर में चला गया । महाराज के सैनिक भी उसके पीछे लगे हुए थे । इसलिये जैसे ही ये वहाँ पहुँचे, वैसे ही शत्रु ने मकानों की आड़ लेकर इनका सामना किया । यहाँ पर करीब एक घंटे तक युद्ध होता रहा । इसके बाद जब सेना के बिखर जाने से सरबुलंद के पास केवल ८० सवार रह गए, तब वह वहाँ से भागकर नदी-पार के अपने शिविर में चला गया । इसी बीच शेख अल्लाहयारखाँ शहर से निकल उसकी मदद को पहुंचा था । परन्तु वह शीघ्र ही मारा गया । इसके बाद शाम हो जाने से महाराज भी अपने शिविर को लौट गए। इस युद्ध में शत्रु के बहुत-से घोड़े, तो आदि राठोड़ों के हाथ लगे। उसके हज़ार-बारह सौ आदमी मारे गए और सात-आठ सौ घायल हुए । महाराज की सेना में यद्यपि मरनेवालों की संख्या कम रही, तथापि घायल अधिक हुए। महाराज की सवारी के घोड़े के मी तलवार के तीन और तीरों के दो ज़ख्म लगे । तीन तीर उसका चमड़ा छीलते हुए निकल गए। इस युद्ध में राजाधिराज भी ज़ख्मी हुए । परन्तु ईश्वर ने सहाय की। शिविर में पहुंचने पर सरबुलंद की तरफ से संधि का प्रस्ताव हुआ । दूसरे दिन महाराज ने फिर चढ़ाई की, परन्तु शत्रु बाहर नहीं आया ।
१. लेटर मुगल्स, भा॰ २ पृ० २११-२१२ । उसमें यह भी लिखा है कि इस युद्ध में राजाधिराज बखतसिंहजी के एक तीर का घाव लग गया था। इसीसे वह उस समय दरबार में उपस्थित न थे । परंतु ख्यातों से उस समय उनका ससैन्य वहाँ पर उपस्थित होना प्रकट
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