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महाराजा अजितसिंहजी इसी बीच बादशाह ने सोरठ का सूबा जयसिंहजी को दे दिया, परंतु बाकी के अहमदाबाद सूबे का प्रबन्ध महाराज के ही अधिकार में रक्खा । उस समय मरहटों का प्रभाव बहुत बढ़ा हुआ था । साथ ही महाराज भी अत्याचारी मुसलमानों से हार्दिक घृणा रखते थे। इसी से यह गुप्त रूप से मरहटों को प्रोत्साहन देते रहते थे, और मौका पाकर इन्हों ने मारवाड़ की सरहद से मिलते हुए गुजरात के प्रदेशों को भी अपने राज्य में मिला लिया था । यद्यपि बाद में इनको वापस हस्तगत करने के लिये सरबुलन्दखाँ ने बहुत कुछ उद्योग किया, तथापि वह कृतकार्य न हो सकी ।
वि० सं० १७७७ ( ई० सन् १७२० ) में सैयदहुसेनअली मारा गया, और इसके करीब एक मास बाद ही सैयद अब्दुल्लाखाँ कैद कर लिया गया । इसलिये महाराज ने स्वयं मारवाड़ से बाहर जाना अनुचित समझ भंडारी अनोपसिंह को गुजरात के प्रबंध की देख-भाल के लिये भेज दिया । वहाँ पर उसके और अहमदाबाद के एक बड़े व्यापारी कपूरचन्द भंसाली के बीच झगड़ा उठ खड़ा हुआ, और वह व्यापारी अनोपसिंह के कार्य में गड़-बड़ करने लगा। इससे क्रुद्ध होकर अनोप ने भंसाली को मरवा डालो। ___ इस प्रकार गुजरात के सूबे का प्रबंध हो जाने के बाद महाराज स्वयं मेड़ते होते हुए अजमेर पहुँचे और वहाँ पर इन्होंने अपना अधिकार कर लिया । इसके बाद यह बादशाह की परवा छोड़ स्वाधीनता-पूर्वक आनासागर के शाही महलों में रहने लगे और इन्होंने अपने दोनों सूबों में गोवध का होना बंद कर दिया ।
१. 'बाँबे गजेटियर' में लिखा है कि उस समय दिल्ली के पास सबसे प्रतापी-नरेश महाराज
अजितसिंहजी ही थे । इसी से इनको प्रसन्न रखने के लिये ई० सन् १७१६ में, सैयदों ने इन्हें गुजरात की सूबेदारी दे दी थी। यह सूबेदारी ई० सन् १७२१ तक इन्हीं के
अधिकार में रही । ( देखो भा० १, खंड १, पृ० ३०१)। २. बाँबे-गजेटियर, भा० १, खंड १, पृ० ३०१ । ३. वि० सं० १७७६ (ई. सन् १७२२ ) में यह भी मार डाला गया। इसी बीच एक बार
महाराज ने बादशाह मोहम्मदशाह से मिलकर अपने मित्र अब्दुल्लाखाँ को छुड़वाने की कोशिश करने का इरादा किया था, परंतु उस समय दिल्ली के शाही दरबार में विरोधी
पक्ष का प्रभाव देख इन्हें यह विचार छोड़ देना पड़ा। ४. लेटर मुगल्स, भा॰ २, पृ० ५६-६० और ६१।। ५. बाँबे गजेटियर, भा० १, खंड १, पृ० ३०१ । ६. अजितोदय, सर्ग २६, श्लो० ६७-६८ और सर्ग ३०, श्लो० १ । ७. लेटर मुगल्स, भा० २ पृ० १०८।
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