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मारवाड़ का इतिहास
की उपाधि देना भी तय हुआ । यह देख इंद्रसिंह वहां से दिल्ली की तरफ़ चला गया ।
जिस समय महाराज नांगोर-विजय में लगे थे, उस समय इनके छोटे भ्राता आनन्दसिंहजी ने एक बार फिर मेड़ते पर चढ़ाई की। परन्तु वहाँ के रक्षक मेड़तिये शेरसिंह के आगे उन्हें सफलता नहीं हुई, और वे नगर के बाहर ही लूट-मारकर वापस लौट गए । इसकी सूचना पाते ही महाराज भी अपने भ्राता राजाधिराज बखतसिंहजी को साथ लेकर मेड़ते आ पहुँचे ।
ख्यातों से ज्ञात होता है कि आँबेर-नरेश जयसिंहजी के और उनके बहनोई बूंदी-नरेश रावराजा बुधसिंहजी के आपस में मनोमालिन्य हो गया था । इसी से जयसिंहजी ने उनसे बूंदी का अधिकार छीन कर हाडा दलेलसिंह को दे दिया। इस पर बुधसिंहजी को कुछ दिन जोधपुर में आकर रहना पड़ा।
इसी प्रकार जयसलमेर रावल अखैराजजी को भी कुछ दिन के लिये मारवाड़ में आकर अपनी रक्षा करनी पड़ी थी।
ख्यातों में यह भी लिखा है कि इसी वर्ष रायसिंहजी और आनन्दसिंहजी के कहने से कंतजी कदम और पीलाजी गायकवाड़ ने आकर जालोर में उपद्रव शुरू किया । परन्तु भंडारी खींवसी ने जाकर उनसे संधि करली । इससे वे वहाँ से वापस लौट गएँ ।
१. अभयोदय, सर्ग ७, श्लो० ४.३३ । परन्तु उक्त काव्य में और 'राजरूपक' में इन्द्रसिंह ___ को निर्वाह के लिये गाँव देने का उल्लेख नहीं है (देखो राजरूपक, पृ० २७६)। २. अभयोदय, सर्ग ७, श्लो० ३६-४० । उक्त काव्य में महाराज के साथ बखतसिंहजी
के मेड़ते आने का उल्लेख नहीं है। 'राजरूपक' में महाराजा अभयसिंहजी का मेड़ते लौटकर बखतसिंहजी को नागोर देना लिखा है । साथ ही उसमें यह भी लिखा है कि इसके बाद महाराज जैतारण, जालोर और सिवाने होकर जोधपुर लौटे थे (देखो पृ० २७७-२७८) । कहीं-कहीं वि० सं० १७८३ के कार्तिक (ई० सन् १७२६ के
अक्टोबर) में बखतसिंहजी को नागोर का अधिकार देने का तय होना लिखा है। वि० सं० १७८२ की आश्विन सुदी ५ के, महाराज के लिखे, पंचोली बालकृष्ण के नाम के, पत्र से आश्विन सुदी ४ को महाराज का मेड़ते से जैतारण की तरफ जाना प्रकट होता है। ३. ख्यातों में लिखा है कि वि० सं० १७८५ (ई० सन् १७२८) में बखतसिंहजी ने
नरावत राठोड़ों से पौकरन छीन लिया और उसे, भीनमाल की एवज़ में, चौपावत महासिंह को दे दिया ।
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