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मारवाड़ का इतिहास महाराज ने राव इंद्रसिंह को अपनी सेना लेकर जोधपुर में उपस्थित होने की
आज्ञा भेजी । परंतु उसने अपने को शाही मनसबदार बतलाकर महाराज की आज्ञा मानने से इनकार कर दिया । इस पर महाराज ने पहले उसी को दंड देने का विचार कर मँगसिर में फिर से नागोर पर चढ़ाई की । यह देख इंद्रसिंह का सुखस्वप्न टूट गया । बादशाह अब तक यहाँ से बहुत दूर था, अतः उससे किसी प्रकार की सहायता की आशा नहीं की जा सकती थी। इससे लाचार होकर उसे फिर महाराज की शरण लेनी पड़ी। महाराज ने भी उसे अपना भतीजा जान क्षमा कर दिया ।
इसके बाद मार्ग में इंद्रसिंह ने बीमारी के कारण अपना साथ में चलना कष्टकर बतलाकर महाराज से अपने पुत्र को साथ ले जाने की प्रार्थना की । इसी के अनुसार यह डीडवाने से उसके पुत्र को लेकर साँभरे होते हुए मारोठ पहुँचे और वहाँ पर अधिकार कर बहादुरशाह के मुकाबले को चले ।
अनुसार वि० सं० १७६५ के फागुन में यह घटना हुई थी। परंतु 'अोरियंटल बायोग्राफिकल डिक्शनरी' में इस घटना का हि० सन् १११६ के ज़िलहिज ( ई० मन् १७०८ की फरवरी या मार्च ) में होना लिखा है । इसके अनुसार इसका समय करीब ११ मास
पूर्व प्राता है । ( देखो पृ० २०८) यह ठीक प्रतीत नहीं होता। १. महाराज के सिकदार दयालदास के नाम लिखे वि० सं० १७६६ की माघ सुदी १ के पत्र
में ज्ञात होता है कि इस बार इंद्रसिंह ने दो लाख रुपये नकद देने और समय पर सेना लेकर फौज में उपस्थित होने का वादा किया था। इसके बाद इंद्रसिंह के उपस्थित होने पर इनमें के एक लाख रुपये माफ़ कर दिए गए, और महाराज उसको साथ लेकर
वापस लौट । २. वि० सं० १७६६ की चैत्र सुदी १५ के, साँभर से, महाराज के लिखे, दयालदास के
नाम के पत्र में लिखा है कि तू किसी बात की फिक्र न करना । हम बादशाह के साथ ऐसी चोट करेंगे कि वह बहुत दिन तक याद करेगा । हाँ, अगर वह मेल करेगा, तो उसे
हमारी इच्छा के अनुसार शर्ते माननी होंगी। बादशाह बहादुरशाह (शाह आलम ) ने अपने सने जलूस ३ की १७ वीं रविउल अव्वल (वि० सं० १७६६ की ज्येष्ठ वदि ४ = ई० स० १७०६ की १६ मई ) को महाराज के नाम एक फरमान लिखा था । उस से प्रकट होता है कि ग्रासफुद्दौला के समझाने से बादशाह ने महाराज से मेल करना अङ्गीकार करलिया था।
३. अजितोदय, सर्ग १६, श्लोक १६-३० ।
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