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भारवाई का इतिहास लौटकर अपनी राजधानी को चले गए, और महाराज साँभरे से नागोर की तरफ़ चले । इनके आगमन की सूचना पा मोहकमसिंह लाडणू की तरफ भाग गया, और राव इन्द्रसिंह को किले का आश्रय लेना पड़ा । जब महाराज उक्त प्रांत के गांवों को लूटते हुए मॅडवे पहुँचे, तब इंद्रसिंह की माता अपने पौत्र को लेकर इनसे मिलने आई, और उसने कह-सुनकर इन्हें लौट जाने पर राजी कर लिया । इसलिये यह लौटकर जोधपुर चले आएं।
की रक्षा के लिये नियत था, मार डाला गया। दूसरे दिन खाँ बड़ी गड़बड़ के साथ भागकर नारनौल पहुँचा । परंतु वहाँ से सैनिक इकडे कर फिर एक बार लौट चला । साँभर के पास पहुँचते पहुँचते उसका राजा जयसिंहजी की सेना से सामना हो गया। यद्यपि पहले पहल खाँ की सेना कुछ सफल होती हुई दिखाई दी, तथापि शीघ्र ही खाँ और उसके सरदार रेत के टीले के पीछे छिपे हुए २.३ हज़ार बंदूकधारी राजपूत-योद्धाओं के बीच घिरकर मारे गए। (लेटरमुगल्स, भा० १, पृ० ६८-७०)।
उसी में 'बहादुरशाहनामे' के आधार पर यह भी लिखा है कि इसके बाद बादशाह ने नर्मी से काम लिया, और शाहज़ादे अज़ीमुश्शान को बीच में डालकर ई० स० १७०८ की ६ अक्टोबर (वि० सं० १७६५ की कार्तिक सुदी ४) को राजा जयसिंहजी और महाराजा अजितसिंहजी को मनसब दिए गए । परंतु जोधपुर और मेड़ते के किले बाराह के सैयद अब्दुल्लाखाँ के अधिकार में ही रक्खे गए । (लेटर मुगल्स, भा० १, पृ० ७१)।
'हदीकतुल अकालीम' नामक इतिहास में लिखा है कि आँबेर और जोधपुर के राजाओं के मालवे से ही अपने-अपने देशों को लौट जाने पर बादशाह ने असदखा को लिखा कि शाहजहानाबाद (दिल्ली) से अकबराबाद (आगरे) जाकर राजपूतों को तसल्ली दे । इसके बाद नर्मदा से पार उतरने पर उसे खबर मिली कि राना की मिलावट से कछवाहा और राठोड नरेशों के अपने-अपने देशों पर फौजें भेजने पर आँवेर का फौजदार हुसैनखाँ, मारे गए जानवर की तरह शत्रुओं के मुकाबले में हाथ-पाँव पटककर, और मेहराबखाँ लड़ाई से मुँह मोड़कर जोधपुर से भाग गए हैं । इससे राजपूत
और मी सुदृढ़ हो गए हैं, और राना के बहकाने से अधिक उपद्रव करना चाहते हैं । यह देख उसने असदखा को उन्हें दंड देने का लिखा । ( देखो पृ० १२८)। १. कहीं-कहीं महाराज अजितसिंहजी का भी जयसिंहजी के साथ आँबेर जाना और कुछ दिन
वहाँ रहकर लौट आना लिखा मिलता है । २. अजितोदय, सर्ग १८, श्लो० १-६ तथा ६६-१०६ ।
ख्यातों में लिखा है कि महाराजा अजितसिंहजी का प्रधान मंत्री पाली का ठाकुर चांपावत मुकुन्ददास (सुजाण सिंहोत ) था। परंतु उसकी उद्दण्डता के कारण कुछ ही समय बाद महाराज उस से नाराज़ हो गए। इसके बाद महाराज की आज्ञा से एक रोज़ छिपिये के ठाकुर ऊदावत प्रतापसिंह ने मुकुन्ददास और उसके भाई रघुनाथसिंह को मारडाला। परंतु इस की सूचना मिलते ही
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