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मारवाड़ का इतिहास
के उपद्रव को शांत करने के लिये वि. सं. १७६७ की प्राषाढ़-सुदी २ (१७ जून )
को अजमेर से पंजाब की तरफ़ गया। ऐलफिंस्टन ने अपने हिंदोस्थान के इतिहास में लिखा है कि बादशाह ने अपने पुत्र के द्वारा संघि की थी। उस समय उसने जयपुर और जोधपुर के नरेशों की सारी शर्तं स्वीकार कर इनकी स्वाधीनता भी उदयपुर के राना के समान ही मान ली थी । ( देखो पृ० ६६२)।
_ 'अजितोदय से भी शाहज़ादे अज़ीमुश्शान के द्वारा संधि का होना प्रकट होता है । ( देखो सर्ग १६, श्लो० ३१-३८)।
'हिस्ट्री ऑफ़ औरङ्गजेब' में लिखा है कि ई० सन् १७०६ के अगस्त में अजितसिंह ने अंतिम बार दल-बल-सहित जोधपुर में प्रवेश किया, और बादशाह ने उसका स्वत्व पूरी तौर से स्वीकार कर लिया। ( देखो भा० ३, पृ० ४२४)।
'लेटर मुगल्स' में लिखा है कि जिस समय बहादुरशाह का शिविर बनास के तट पर था, उस समय हाँसी का नाहरखाँ और यारमुहम्मद, जो राजस्थान के नरेशों को दबाने के लिये भेजे गए थे, उनके मंत्रियों को लेकर हाज़िर हुए । ई० सन् १७१० की २२ मई ( वि० सं० १७६७ की ज्येष्ठ सुदी ५) को शाहज़ादे अज़ीमुश्शान के द्वारा उक्त नरेशों के पत्र बादशाह के सामने पेश किए गए; साथ ही शाहज़ादे की प्रार्थना पर उनके कुसूर माफ कर दिए गए, और उसी (शाहज़ादे ) के द्वारा उनके मंत्रियों को खिलअत दिए गए । इसके पाँचवें दिन जब बादशाह का डेरा टोडे के पास हुआ, तब उप्तने राना अमरसिंह, महाराजा अजितसिंह और राजा जयसिंह के आदमियों को १८ खिलत दिए । साथ ही १ खिलअत राठोड़ दुर्गादास का पत्र लानेवाले को भी दिया गया। इसी बीच बादशाह को सरहिंद के उत्तर में (बन्दा की अधिनायकता में ) सिक्खों के उपद्रव उठाने की सूचना मिली। अतः उसने महाबतखाँ को उपर्युक्त नरेशों को समझाकर अपने पास ले पाने के लिये भेजा । इसके बाद जब इन्होंने संघि करना स्वीकार कर लिया, तब बादशाह ने अपने वज़ीर मुनग्रमखाँ को इनकी अगवानी को रवाना किया । २१ जून को जोधपुर और जयपुर के नरेश आकर उससे मिले, और प्रत्येक ने २०० मुहरें और २,००० रुपये उसकी भेट किए। बादशाह ने भी उन्हें खिलात, जड़ाऊ तलवारें, कटार, पट्टे, हाथी और फ़ारस के घोड़े देकर अपनी-अपनी राजधानियों को लौट जाने की
आज्ञा दी । इससे पुष्कर तक तो दोनों राजा एक साथ लौटे, परंतु वहाँ से जयसिंहजी तो जयपुर की तरफ रवाना हो गए और महाराज जुलाई (आषाढ़ ) के अंतिम भाग में जोधपुर चले आए। बादशाह मी २२ जून (आषाढ़ सुदी ७ ) को अजमेर पहुंचा।
उसी इतिहास में कमवरखाँ के लेख के आधार पर यह भी लिखा है कि जिस समय दोनों राजा बादशाह से मिलने आए, उस समय कमवर ने देखा कि शाही कैंप के चारों ओर की पहाड़ियाँ और मैदान राजपूतों से भरे हैं । उस समय कई हज़ार शुतर-सवार पहाड़ों के दरों में छिपे थे और प्रत्येक ऊँट पर बन्दूकों या तीर-कमानों से सजे हुए दो-दो या तीन-तीन योद्धा बैठे थे । उनका उद्देश्य यह था कि यदि बादशाह की तरफ से किसी प्रकार का धोका हो, तो अपने प्राण देकर भी अपने स्वामियों की रक्षा करें। ( देखो भा० १, पृ० ७१-७३ )।
महाराज के रामपुर से लिखे वि० सं० १७६६ (चैत्रादि १७६७) की वैशाख बदी १३ के दयालदास के नाम के पत्र से बादशाह का महाराज को जोधपुर और जयसिंहजी को अाँबेर देने का वादा करना प्रकट होता है।
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