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मारवाड़ का इतिहास किशनगढ़ नरेश राजसिंहजी के विपक्षी का साथ देने के कारण यह उनसे नाराज था। इसलिये वह लाहौर से लौटकर रूपनगर चले आए, और उन्होंने महाराज को पत्र लिखकर समय पड़ने पर सहायता करने की प्रार्थना की । इस पर इन्होंने मी उन्हें अपना भतीजा समझ यह बात स्वीकार करली । इसके कुछ दिन बाद महाराज ने आस-पास के प्रदेशों पर अधिकार करने का विचार कर किशनगढ़-नरेश राजसिंहजी को भी सेना लेकर उपस्थित होने का लिखा । परंतु उन्होंने इसकी कुछ मी परवा न की । यह देख महाराज बाँदरवाड़ा, भिणाय और विजयगढ़ को विजय करते हुए देवगढ़ पहुँचे । जिस समय इनका निवास उक्त स्थान पर था, उस समय फिर इन्होंने पत्र लिखकर राजसिंहजी को अपने पास बुलवाया । परंतु जब इस बार मी उन्होंने इस पर ध्यान नहीं दिया, तब (वि० सं० १७६९ ई० सन् १७१२ में ) इन्होंने किशनगढ़ पर आक्रमण कर वहां पर अधिकार कर लिया और उसके बाद ही रूपनगर को भी घेर लिया । पहले तो राजसिंहजी ने बड़ी वीरता से इनका सामना किया, परंतु अंत में उन्हें महाराज की
_ 'राजरूपक' में लिखा है कि उसने महाराज को गुजरात की सूबेदारी दी थी। परंतु महाराज के उधर जाने के पूर्व ही वह मर गया, और फ़र्रुखसियर दिल्ली के तख्त पर बैठा । (हस्त-लिखित पुस्तक पृ० १८८)।
जहाँदारशाह का जलूसी सन् हि० सन् ११२४ की १४ रबीउल अव्वल ( वि० सं० १७६६ की चैत्र सुदी १५ ई० सन् १७१२ की १० अप्रेल ) से माना गया था। १. इन्होंने शायद लाहौर के युद्ध में अज़ीमुश्शान का पक्ष लिया था। इसी से मोइजुद्दीन जहाँ
दारशाह इनसे नाराज़ था। २. इसकी पुष्टि किशनगढ़-नरेश के वि. सं. १७६८ की माघ सुदी ८ के महाराज के नाम के
पत्र से भी होती है। ३. महाराज के लिखे वि. सं. १७६६ (चैत्रादि संवत् १७७०) के, पँचोली बालकृष्ण के नामके
पत्रों से ज्ञात होता है कि महाराज ने उसे जूनिया, मसूदा, तोड़ा, बाँदरवाड़ा और शक्तावतों के अधीन के प्रदेशों को विजय करने के लिये भेजा था और उसने वे प्रदेश विजय कर
लिए थे। ऐसा ज्ञात होता है कि महाराज के उधर से लौट कर जोधपुर आने पर उपर्युक्त लोगों ने फिर कहीं-कहीं सिर उठाया होगा । इसीसे पंचोली बालकृष्ण ने उन को फिर से जीता ।
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