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महाराजा जसवंतसिंहजी (प्रथम)
था । परन्तु फिर भी बादशाह आलमगीर खुलकर इनका विरोध न कर सका । यद्यपि मन-ही-मन वह इनसे बहुत जलता था, तथापि इन्हें अपने देश से दूर रखने के सिवा इनका कुछ भी न बिगाड़ सका था । उपर्युक्त आक्रमण का बदला लेने के लिये एक बार उसने राव अमरसिंहजी के पुत्र राव रायसिंह को मारवाड़ का राज्य देकर दल-बल-सहित उधर रवाना भी कर दिया था। परन्तु अन्त में उसको मुंह की खानी पड़ी। __इनकी दूरदर्शिता का पता इससे भी लगता है कि वि० सं० १७२३ में इन्होंने अपने राज-कर्मचारियों के वेतन में वृद्धि कर रिश्वत की सख्त मनाई कर दी थी। इनकी विद्वत्ता और काव्य-निपुणता का पता इनके बनाए साहित्य के ग्रंथ 'भाषाभूषण' से और वेदान्त-विषय के १ सिद्धान्तबोध, २ सिद्धान्तसार, ३ अनुभवप्रकाश, ४ अपरोक्ष- ' सिद्धान्त और ५ आनन्दविलास नामक छोटे छोटे परन्तु सुबोध ग्रन्थों से मिल जाता है। यह महाराज डिंगल-भाषा के भी अच्छे कवि थे ।
इसी प्रकार इनकी दानशीलता और गुणग्राहकता का हाल, इनके लाहौर में एक ही दिन में २२ घोड़े और ३ हाथी अपने सरदारों और कवियों को इनाम में देने तथा वहाँ पर उपस्थित १४ कवियों में से प्रत्येक को डेढ़-डेढ़ हज़ार रुपये दान देने से ! प्रकट होता है।
महाराज जसवंतसिंहजी ने करीब ४१ वर्ष राज्य किया था। इनमें के ( बादशाह शाहजहाँ के राज्य-समय के ) पहले २० वर्ष तो बड़ी ही शांति से बीते । परन्तु पिछले ( औरङ्गजेब के समय के ) २१ वर्षों में इन्हें अधिक सतर्कता से काम लेना पड़ा। १. ख्यातों के अनुसार इन्हें सातहज़ारी जात और सात हज़ार सवारों के मनसब में (जिसमें
के ५,००० सवार दुअस्पा-सेअस्पा थे ) १७,२५,००० की आमदनी का प्रदेश मिला था। इसमें मारवाड़ के साथ ही हाडोती, गुजरात, मालवा, बुरहानपुर और हाँसी--हिसार के परगने भी थे । इसके अलावा इन्हें शाही खज़ाने से ५,२५,००० रुपये, सवारों
आदि के वेतन के लिये और भी मिलते थे। २. यह पुस्तक काशी-नागरी-प्रचारिणी सभा ने प्रकाशित की है । इन्होंने श्रीमद्भागवत पर ।
भाषा में एक टीका लिखी थी और 'प्रबोधचन्द्रोदय' नामक नाटक का भाषानुवाद भी
किया था। ३. राजकीय कौंसिल की आज्ञा से इन वेदान्त के पाँचों ग्रंथों का संपादन इस इतिहास के
लेखक ने वेदान्त-पञ्चक के नाम से किया है। इनके बनाये ग्रन्थों का पूरा विवरण इतिहास के प्रारम्भ में दिया जा चुका है।
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