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महाराजा जसवंतसिंहजी (प्रथम) इसकी सूचना पाते ही महाराज ने अपनी सेना को पठानों पर चढ़ाई करने की आज्ञा दी । अतः कुछ चुने हुए राठोड़ वीरों ने जाकर उपद्रवियों को मार भगाया। इसके बाद जब इस घटना की सूचना बादशाह को मिली, तब वह स्वयं पठानों को दंड देने के लिये हसनअबदाल की तरफ़ रवाना हुआ । उसके रावलपिंडी पहुँचने पर वि० सं० १७३१ की आषाढ़ वदि ६ ( ई० स० १६७४ की १४ जून ) को महाराज वहाँ जाकर उससे मिले । बादशाह ने इन्हें खासा खिलअत और ७,००० रुपये की उर्बसी ( पोशाक ? ) देकर अपनी प्रीति प्रकट की और इनके जमरूद वापस लौटने के समय जड़ाऊ साज़ की तलवार और तलायर-समेत ( अम्बारी-सहित ) हाथी देकर इनका सम्मान किया । इसके बाद महाराज ने जमरूदै पहुँच स्थान-स्थान पर अपनी चौकियाँ कायम कर दी । इससे पठान बिलकुल शांत हो गए । इस पर मँगसिर ( दिसम्बर ) में बादशाह ने ( अपने १८वें राज्यवर्ष के प्रारंभ के उत्सव पर ) महाराज के लिये खासा खिलअत भेजी।
वि० सं० १७३३ की चैत्र वदि ३ ( ई० स० १६७६ की १२ मार्च ) को जमरूद में महाराज के द्वितीय महाराजकुमार जगतसिंहजी का देहान्त हो गया । इससे महाराज का सारा उत्साह शिथिल पड़ गया और यह उत्तराधिकारी की चिंता से खिन्न रहने लगे । इसके बाद वि० सं० १७३५ की पौष वदि १० ( ई० स० १६७८ की २८ नवम्बर ) को जमरूद में ही ५२ वर्ष की अवस्था में स्वयं महाराज का स्वर्गवास हो गया।
१. ख्यातों में लिखा है कि इसके बाद भी पठानों ने दो-तीन बार सिर उठाने की चेष्टा की
थी। परन्तु महाराज की सेना के जोधा (गोविंददास के पुत्र) रगाछोड़दास, भाटी रघुनाथसिंह, (श्यामसिंह के पुत्र) वीरमदेव आदि ने बड़ी वीरता से युद्ध कर उनको
दबा दिया। २. मासिरे आलमगीरी, पृ० १३३ । ३. जमरूद खैबर दर्रे के उस तरफ अलीमसजिद के पास है। ४. मासिरे आलमगीरी, पृ० १३६ । ५. इनका जन्म वि० सं० १७२३ की माघ वदि ३ (ई० स० १६६७ की ३ जनवरी)
को हुआ था। ६. लेटरमुग़ल्स नामक इतिहास में इनके दो पुत्रों का काबुल में मरना लिखा है (देखो
भा० १, पृ० ४४) । परन्तु ख्यातों से इसकी पुष्टि नहीं होती। ७. मारवाड़ की ख्यातों में से किसी में इनका जमरूद में पूर्णमल बुंदेले के बाग में और
किसी में पेशावर में मरना लिखा है ।
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