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मारवाड़ का इतिहास
बल के साथ मारवाड़ की तरफ होते हुए वहाँ जा पहुँचे । कुछ ही समय में इन्होंने वहाँ के उपद्रवी पठानों को दबाकर काबुल और भारत के बीच का ( खबर के दर्रे का ) मार्ग निष्कंटक कर दिया ।
इसी वर्ष औरङ्गज़ेब ने गोवर्धन पर्वत पर का मन्दिर गिरा देने की आज्ञा दी । इसका समाचार पाते ही गोस्वामी दामोदरजी वहाँ की मूर्ति को लेकर पहले से ही चुपचाप चल दिए और मार्ग में कोटा, बूंदी और किशनगढ़ की तरफ़ होते हुए मारवाड़ के चौपासनी नामक गाँव के निकट कदमखंडी स्थान में करीब ६ मास तक रहे । इसके बाद कार्त्तिक सुदि १५ को वह मेवाड़ के सिहाट नामक गाँव में चले गए । यही स्थान इस समय नाथद्वारे के नाम से प्रसिद्ध है ।
वि० सं० १७३० की फागुन वदि ४ ( ई० स० १६७४ की १४ फरवरी) को पठानों ने गंदाब नदी के उस पार स्थित शुजाअतखाँ पर हमला कर उसे मार डाला ।
१. ख्यातों में लिखा है कि बादशाह ने वि० सं० १७२८ में महाराज को दक्षिण से बुलाकर पहले गुजरात का सूबा दिया और इसके बाद वि० सं० १७३० के फागुन में इन्हें काबुल भेजा। परन्तु फ़ारसी तवारीख़ों में गुजरात के सूबे का उल्लेख नहीं है । 'बाँ गज़ेटियर' में लिखा है कि ई० सन् १६७१ (वि० सं० १७२८) में महाराज जसवंत सिंहजी
गुजरात पहुँच खानजहाँ से वहाँ के प्रबंध का भार ले लिया । इसी के साथ इन्हें धंधूंका और पिटलाद के परगने भी मिले । ई० सन् १६७३ ( वि० सं० १७३० ) में इन्हीं की सिफ़ारिश से बादशाह ने रायसिंह के पुत्र जाम तामची को नवानगर और एक जाड़े जे को २५ गांव लौटा दिए थे । इसके बाद ई० सन् १६७४ ( वि० सं० १७३१ ) के अंत में महाराज काबुल की तरफ़ भेजे गए ( देखो भा० १, खंड १, पृ० २८५)।
'तारीखे पालनपुर' में लिखा है कि वि० सं० १७२७ ( हि० सन् १०८२= ई० सन् १६७१ ) में महाराज जसवंतसिंह राठोड़ ने गुजरात की सूबेदारी मिलते ही पालनपुर की हुकुमत से कमालखाँ को हटाकर उसके भाई फतेहग्वाँ को उसके स्थान पर नियत कर दिया था ( देखो भा० १, पृ० १२३) ।
जेम्स बर्जेज़ की 'क्रॉनोलॉजी ऑफ मोडर्न इंडिया' में ई० सन् १६७४ ( वि० सं० १७३१ ) तक महाराज जसवंतसिंहजी का गुजरात के सूवे पर होना लिखा है (देखो पृ० ११५ ) ।
२. कहीं-कहीं इस घटना का वि० सं० १७२६ में होना लिखा है । वहाँ पर यह भी लिखा है कि गुसांईजी करीब दो वर्षों तक कदमखंडी में रहकर मारवाड़ के गाँव पाटोदी में पहुँचे । परन्तु महाराज जसवंतसिंहजी के जमरूद में होने के कारण वि० सं० १७२८ में वह मेवाड़ चले गए ।
३. मासिरे आलमगीरी, पृ० १३१ ।
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