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मारवाड़ का इतिहास
राठोड़ों के स्थान पर भेजा । उसे आज्ञा दी गई थी कि वह अजितसिंहजी के साथ ही
उसी में आगे लिखा है कि:
इस समय उदयपुर-नरेश के सामने दो बातें थीं । या तो वे बागी राठोड़ों का साथ देते या अपनी स्वाधीनता को छोड़ते । मारवाड़ पर बादशाही अधिकार हो जाने से उनके पहाड़ी स्थान भी ख़तरे में पड़ गए थे । इसके अलावा महाराना को भी जज़िया देने के लिये दबाया गया था । इसीसे महाराना ने राठोड़ों का साथ दिया । बहुत-से सीसोदिये भी गोड़वाड़ में आए हुए राठोड़ों से मिल गए थे । (देखो भा० ३, पृ० ३८२-३८३ ) ।
इसके अलावा उस समय महाराजा जसवंत सिंहजी का सारा माल असबाब बादशाह ने छीन लिया था और सारे ही मारवाड़ पर मुग़लों का अधिकार हो गया था । इससे राठोड़ - सरदार भी संकट में थे। ऐसी हालत में बालक महाराज की तरफ से महाराना को सब ज़ेवरों से सजा हुआ हाथी और दस हज़ार रुपये आदि नज़र करना और उनका महाराज को मेवाड़ में रखकर जागीर देना कहाँ तक ठीक है ।
इसीप्रकार अजितसिंह के मेवाड़ से चले जाने पर सोनग का राठोड़ दुर्गादास के साथ होकर शाही सेना से लड़ने का उल्लेख भी विचारणीय है; क्योंकि इन दोनों ने वि० सं० १७३६ ( ई० ६० सन् १६८० ) में ही जालोर के बिहारी पठान फ़तेहखाँ पर हमला किया था ।
अस्तु । यहाँ पर इन इधर-उधर की बातों को छोड़कर वास्तविक बात पर विचार करना ही उचित है।
स्वयं ‘राजपूताने के इतिहास' में बादशाह के और महाराना के बीच वि० सं० १७३८ की श्रावण बदी ३ ( ई० सन् १६८१ की २४ जून) को संधि होना लिखा है (देखो भा० ३, पृ० ८६७ ), परन्तु दुर्गादास तो इससे २३ दिन पूर्व ही दक्षिण में शंभाजी के राज्य के पालीनगर में जा पहुँचा था । (देखो 'हिस्ट्री ऑफ औरंगज़ेब,' भा० ४, पृ० २४६ ) 'मासिरे आलमगीरी' में भी अकबर और दुर्गादास का ( हि० सन् १०६२ की ७ जमादि-उल-अव्वल (वि० सं० १७३८ की ज्येष्ठ सुदि ८ ई० सन् १६८१ की १५ मई) को दक्षिण में पहुँचना लिखा है, और महाराना के साथ की संधि की तिथि ७ जमादि-उल-आखिर ( आषाढ़ सुदी ६=१४ जून ) लिखी है | ( देखो पृ० २०६ - २०८ ) ऐसी हालत में उक्त घटना के बाद दुर्गादास का बालक महाराज को ले जाकर सिरोही की तरफ़ छिपाना और सोनग के ( जो उसके दक्षिण से लौटने के पूर्व ही मर चुका था ) साथ मिलकर शाही सैनिकों से युद्ध करना कहाँ तक संभव हो सकता है ।
रहा महाराज को जोधपुर प्राप्त करने में महाराना की सहायता की आवश्यकता का प्रतीत होना, सो न तो स्वयं 'राजस्थान के इतिहास' में ही वि० सं० १७६३ ( ई० सन् १७०७ ) की घटनाओं में इस प्रकार की सहायता का उल्लेख है, न किसी अन्य इतिहास में ही । हाँ हम यह मान लेने को तैयार है कि अन्य अनेक राजनैतिक कारणों से सीसोदियों के भी राठोड़ों के साथ बग़ावत इख़्तियार कर लेने से दोनों पक्षों को एक-दूसरे से समय-समय पर सहायता मिलती थी, और वे एक दूसरे के रहस्यों से भी बहुत कुछ परिचय रखते थे । परन्तु इससे यह सिद्ध करना कि जोधपुर के बालक महाराज को शरण देने के कारण ही महाराना को बादशाह का कोप भाजन होना पड़ा था, नितांत असत्य है ।
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